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नही बनना

नहीं बनना मुझे राधा शाम की,जो रास तो संग मेरे रचाता हो,
पर सिंदूर मांग में किसी और की, बड़े प्रेम से सजाता हो।।

नहीं बनना मुझे सिया राम की,जो सर्वज्ञ होकर भी अग्निपरीक्षा करवाता हो,
गर्भावस्था में भी अपनी अर्धांगिनी को,धोखे से वन भिजवाता हो।।

नहीं बनना मुझे द्रौपदी पार्थ की,जो ब्याह तो संग मेरे रचाता हो,
पर निज चार भ्राताओं संग,इस नाते के हिस्से करवाता हो।।

नहीं बनना मुझे किसी गौतम की कोई अहिल्या,
जो मुझे श्रापग्रस्त करवाता हो,
छल से मुझे तो छला इंद्र ने,उद्धार हेतु मुझे युगों तक राम प्रतीक्षा करवाता हो।।

नहीं बनना मुझे पांचाली धर्मराज की,जो जुए में मुझे दाव पर लगाता हो,
व्यक्ति थी मैं वस्तु नहीं, मुझे भरी सभा मे केश खींच लाया दुशाशन,
जो नारी अस्मिता को माटी में मिलाता हो।।

नहीं बना मुझे पांडु रानी कुंती,जो निज सुत जन्म 
छिपाती हो,
समाज के झूठे डर से जो दोहरा जीवन अपनाती हो।।

नहीं बनना मुझे लक्ष्मण की उर्मिला,जो मुझे विरह अग्नि में जलाता हो,
बिन मेरी इच्छा जाने,निज भ्रात संग वनगमन की कसमें खाता हो।।

नहीं बनना मुझे यशोदा गौतम की,जो माँ बेटे को सोया छोड़ भरी रात में,सत्य की खोज में जाता हो,
पल भर के लिए भी नहीं सोचा हमारा,तोड़ा झट से,चाहे कितना ही गहरा नाता हो।।

नहीं बनना मुझे शकुंतला किसी दुष्यंत की,जो जंगल मे मुझे अकेले छोड़े जाता हो,
भुला देता हो जो हर प्रेमकहानी,चाहे कोई कितना ही याद दिलाता हो।।

नहीं बनना मुझे किसी राणा की मीरा,जो सरेआम विष प्याला पिलाता हो,
मैं वन वन खोजूं निज आराध्य को,वो मेरे जीवन को मृत्यु फरमान सुनाता हो।।

नहीं बनना मुझे किसी देवदास की कोई पारो,जो प्रेम पींग तो निसदिन संग मेरे बढ़ाता हो,
आया पर जब वक़्त हाथ थामने का,तब मुझसे नज़रें चुराता हो।।

नहीं बनना मुझे गांधारी किसी धृतराष्ट्र की,जो तन संग मन नेत्र भी मूंदे जाता हो,
नही लगाया अंकुश जिसने दुर्योधन की मनमानी पर,हर उजियारा,जो तमस ही तमस जीवन में लाता हो।।

नहीं बनना मुझे कोई मंदोदरी किसी रावण की जो परस्त्री हरण को जाता हो,
एक स्त्री की खातिर जो,लंकादहन करवाता हो।।

नहीं बनना मुझे अम्बा अम्बालिका,युगों युगों तक 
प्रतिशोध ज्वाला में जलाता हो,
नारी तन भूगोल में खोया नर कभी नही पढ़ सका नारी मन विज्ञान को,जाने क्या क्या उससे करवाता हो।।

नहीं बनना मुझे कोई देवदासी किसी पुजारी की,जहाँ मेरा दामन कुचला जाता हो,
जाने कितने ही अनकहे अहसासों को,क्रूरता से मसला जाता हो।।

मैं मेरे बाबुल के आँगन की चिरइया, माँ की ममता का साया हूँ,
भाई बहनों, सखी सहेलियों संग बीता जो प्यारा बचपन,उसकी ठंडी सी छाया हूँ।।

मैं जो हूँ जैसी हूँ, वैसी ही मुझे रहने दो,
बरसों से सिसक रहा है जो इतिहास,
आज तो खुल कर कहने दो,आज तो खुल कर कहने दो,
मत दो मुझे किसी देवी की संज्ञा, मुझे मेरे सहज अस्तित्व संग रहने दो,
गंगोत्री से गंगासागर तक,गंगा को बस निर्मल सा बहने दो।।

                   स्नेह प्रेमचंद




Comments

  1. स्त्री के भावों की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति अत्यंत भावपूर्ण पंक्तियां...

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    1. तहे दिल से शुक्रिया,यह मेरी पसंदीदा रचना है।।

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  2. बहुत बढ़िया कविता

    ReplyDelete
  3. beautiful lines n so different perspective of different historical n mythological personalities...true women of substance
    Indeed great efforts by the poet 👍🏻

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी प्रतिक्रिया से हौंसला अफजाई होती है,शुक्रिया

      Delete

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