कहाँ गई तहज़ीब,क्यों सो गए संस्कार??
ये पंखों को क्या परवाज़ मिली,
हो गए सपने सारे ज़ार ज़ार।।
क्या कमी रह गई परवरिश में हमारी,
किस सोच को हकीकत का मिला आकार??
अंकुश न लगा जब मनमानियों पर,
संवेदनहीनता का होने लगा श्रृंगार।।
बेबसी ने जब ली सिसकी,
चहुँ दिशा में हो गया हाहाकार।।
कहाँ खो गयी तहज़ीब,कहाँ सो गए संस्कार???
जो कुछ भी हम देते हैं जहाँ में,
वही लौट कर एक दिन आता है,
सीधा सा गणित है खुदा की खुदाई का,
क्यों इंसा समझ नही पाता है?
बीत जाता है वक़्त हौले हौले,
फिर पाछे वो पछताता है।।
सोच,कर्म,परिणाम की सदा बहती है त्रिवेणी,
ईश्वर का पर्याय हैं मात पिता,
क्यों उन्हें प्रेम,सम्मान नही दे पाता है??
सही समय पर सही कर्मों की,
हो बेहतर बजने लगे शहनाई।
उत्सव न बदले मातम में,
हो न जग में रुसवाई।।
भोग विलास,मनमानी, अराजकता,
क्या यही रह गया सोच का आधार?
उपभोग ही तो नही करने आये है,
हो सोच में परिष्कार।।
कहाँ गई तहज़ीब,कहाँ सो गए संस्कार???
स्नेहप्रेमचन्द
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