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बेचैनी और सुकून

एक दिन बेचैनी ने कहा सुकून से,"हो शांत से गहरे सागर तुम,थाह तुम्हारी आज तलक न किसी ने पाई"
मैं नदिया के भंवर के जैसी उद्विग्न और चंचल,
कोई शांत,सीधी,उजली सी राह न दी कभी दिखाई।।
कहा सुकून ने बेचैनी से,"होता है जहाँ मोह,काम,क्रोध और भौतिक सुखों को पाने की तीव्र लालसाएँ।
तुम बिन बुलाए दौड़ी चली जाती हो वहाँ पर,
ठहराव की नहीं दिखाई देती तुम्हें राहें।।
"आक्रोश"तुम्हारे पिता हैं बेचैनी," चितचिंता"है तुम्हारी माता।
आशंका है बहन तुम्हारी,आवेग से है भाई का नाता।।
नहीं ज़रूरी मैं रहूं महलों में,मुझे तो फुटपाथ भी आते हैं रास।
पर तुम तो कहीं भी नही टिक पाती,पूरे ब्रह्मांड में तुम्हारा नहीं है वास।।
बच्चे की मुस्कान में हूँ मैं, माँ की ममता में रहता हूँ,
पिता की परवरिश में हूँ, बड़ी सहजता से कहता हूँ।।
जिस दिन तुम्हे जीवन की सही सोच समझ में आएगी,
विलय हो जाओगी उस दिन तुम मुझमें,
बेचैनी सुकून बन जाएगी,बेचैनी सुकून बन जाएगी।।
              स्नेह प्रेमचन्द

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