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श्रद्धा और तर्क

ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर,एक दिन दोनों मिल जाते हैं,
करते हैं कुछ बातें ऐसी,जिसे सुन हम दंग रह जाते हैं।।
बेचैन तर्क कुछ बोला ऐसे, सुन श्रद्धा मंद मंद मुस्काई,
तनिक भी मन नही डोला उसका,कहते हुए न ज़रा सकुचाई।।
"आस्था"है माँ,"विश्वास"पिता हैं और "धीरज"लगता है भाई।
है पूरा ही परिवार मेरा ऐसा,तभी मैं श्रद्धा बन पाई।।
सुन श्रद्धा का सुंदर परिचय,तर्क ने प्रकट किए निज यूँ उदगार,
"बिन प्रमाण कैसे मान लेती हो तुम सब कुछ,क्या है तुम्हारी सोच का दृढ़ आधार????
मानों तो पत्थर भी भगवान है,
न मानों तो गंगा भी है सादा बहता पानी।
तुम दिमाग में रहते हो लोगों के,
मैं हूँ लोगों के दिलों की रानी।।
चीजों को सिद्ध करने में ही,
बिता देते हो पूरी ज़िंदगानी।
फिर भी आता नहीं कुछ हाथ तुम्हारे,
नहीं आती समझ तुम्हे हिवड़े की कहानी।।
अतृप्त से भटकते रहते हो तुम,
नहीं मंज़िल तुम्हे कोई मिल पाती।
क्या सही है,क्या गलत है,
इसी आपाधापी में ज़िन्दगी चली जाती।।
मैं अनन्त सागर सी बहती रहती हूं,
मेरी शरण में लोगों को मिलता है चैन।
तुम किसी तड़ाग का ठहरा मटमैला पानी,
तड़फते रहते हो दिन रैन।।
माना मैंने,अंधविश्वास बुरा है,
देते हो तुम सही समझ को सही आधार।
पर सही गलत की इस परिपाटी में ही,
पूरी ज़िंदगी देते हो गुजार।।
मैं" श्रद्धा"हूँ,"अंधविश्वास"नहीं,
है हम दोनों में फर्क बहुत भारी।
अब तुम ही समझो,तुम ही जानो फर्क हमारा,
लगा दो इसी में शक्ति सारी।।
काश जानते मुझको तुम,
फिर नहीं करते इतने सवाल।
मेरा सच्चा परिचय पाकर,
थम जाते तुम्हारे सारे बवाल।।
मैं हूँ एक ऐसा उजाला,
जो मिटा देता है पूरा अंधेरा।
मन के किवाड़ खोल देती हूं मैं,
आता है फिर सुंदर सवेरा।।
सुन श्रद्धा की बातें तर्क ने,
फिर से अपना तर्क लगाया।
क्या है "श्रद्धा",क्या कहना चाहती है "श्रद्धा"
किस भाव से ओत प्रोत है"श्रद्धा"
आजीवन वो समझ न पाया।।
राह दोनों की अलग अलग थी,
रास्ता दोनों ने अपना अपना अपनाया।
नहीं समझ सकते थे दोनों एक दूजे को,
बेशक श्रद्धा ने तर्क को हो कितना ही समझाया।।
            स्नेह प्रेमचन्द

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