लेखन के गलियारों में,
भावों के बाजारों में,
अक्सर घूमने लगता है मन,
तो कुछ शब्दों के मोती चुनकर,
रचना की बुन देता है माला।
साहित्य के आदित्य से दमकने
लगता है समा,
लगता जैसे पी ली हो हाला।।
लेखन में है एक ऐसा सरूर,
हो न पर मन में कोई ग़रूर,
कुछ नया रचने का जज़्बा
हो हर ह्रदय में ज़रूर।।
ह्रदय नही वो पत्थर है
भाव नही जहां लेते जन्म,
वस्तु नही हम व्यक्ति हैं
सबके हैं अपने अपने कर्म।।
साहित्य समाज का है दर्पण
बचपन से सुनते आए हैं
अच्छे और समृद्ध साहित्य ने
ज्ञानदीप असंख्य जलाए हैं।।
धन्य है वह लेखनी जिसने
जाने कितने ही ह्रदय परिवर्तन
करवाए हैं,
बधाई पात्र हैं वे लेखक
अशांत चित जिन्होंने
शांत करवाए हैं।।
स्नेहप्रेमचन्द
Simple yet beautiful poem ...well written 👏🏻👏🏻
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