सुन सहजता का सुंदर परिचय,
बेचैनी को ईर्ष्या हो आई।
क्यों रहती है ये इतनी शांत और सुंदर,
चित्त में चिंता ने अग्नि जलाई।।
मैं क्या और कैसे दूँ परिचय अपना,
बेचैनी को ये समझ न आई।।
*हर पल* *पल पल* ज़िन्दगी का,
मुझे मेरी बहना लगता है भारी।
रात और दिन मेरे हिवड़े में,
ईर्ष्या की सुलगती है चिंगारी।।
मुझे क्या मिला,क्या नहीं मिला,
इसी पर करती रहती हूं विचार।
उसे सुख मानती हूं जो सुख है ही नही,
करती हूं ये सत्य मैं स्वीकार।।
*आलस्य* मेरे पिता हैं,
और *लालसा* है मेरी माता।
*क्रोध* है मेरा छोटा भाई,
*हिंसा* से बहना का नाता।।
*तनाव* हैं मेरे कठोर से प्रीतम,
निस दिन रंग उनका मुझ पर चढ़ जाता है।
*अवसाद* हैं पितामह हमारे,
*अवसाद* और *आलस्य* का
तात और सुत का नाता है।।
मैं जन्मी यहाँ, मुझे मिले मेरी बहना,
कुछ ऐसे ही कुसंस्कार।
यही राज़ है मेरी बेचैनी का,
ऐसा ही है मेरा परिवार।।
परवरिश,परिवेश और प्राथमिकताओं ने,
मुझे चिंतन नही चिंता करने सिखाया।
निज विवेक से काम लिया नही मैंने,
पल पल व्यक्तित्व में ह्रास को ही पाया।।
*गौण* को * मुख्य* *मुख्य* को *गौण*
यही युगों युगों से मैंने माना है।
सही गलत का भेद मेरी बहना,
मैंने आज तलक नही जाना है।।।
*चंचलता* मेरी सखी है बहना,
मुझे साथ उसकी का भाता है।
वो रहती है सदा संग मेरे,
व्याकुलता का संग उसके,
ही तो मेरा खोखला नाता है।।
*प्रलोभन* है मेरा पड़ोसी,
*दुर्भावना* के देस में,
मैं रहती हूं।
*तनाव* * विकार* * ज़िद्द*
हैं मेरे सदा से ही सहयोगी,
आज मन की पाती तुम्हें कहती हूँ।।
अब तुम ही बतलाओ मेरी बहना
ऐसे संगियों संग कैसे मिल सकता है चैन।
यही कारण है मेरी आली,
हूँ तड़फती दिन और रैन।।
लगती हो अच्छी, सुंदर और भली सी तुम
सहजता सब चाहते हैं तेरा ही प्यारा सा साथ।
पर मैं नहीं बन पाती कभी तुझ जैसी प्यारी,
थाम लो न मेरा भी तुम हाथों में हाथ।।
मन के किसी एक कोने में मुझे खुद से ही
आत्मग्लानि सी हो आती है,
आँखें चुराती है।।
कार्यक्षमता और अविश्वास भी धीरे धीरे
खुद को सिकोड़े जाता है,
तेरा सहज रहना ओ सहजता,
जन जन को तहे दिल से भाता है।।
युग आएंगे,युग जाएंगे
सहजता और बैचनी में से लोग
सहजता को अपनाएंगे।।
स्नेह प्रेमचन्द
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