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Love and hatred| नफरत और प्रेम भाग 2 poem by sneh premchand

सुन प्रेम की परिभाषा नफरत फिर थोड़ा शरमाई।
क्यों नहीं बदली मैं युगों युगों से,क्यों मैंने प्रेम बांसुरी नहीं बजाई।।
मैं सुलगी कौरवों के ह्रदय में,
पांडवों के हिया में भी मैंने अपनी जगह बनाई।
अपनों ने खून बहाया अपनो का,
ये मैंने कैसी प्रथा चलाई।।
भरी सभा मे जब अपमानित हुई द्रौपदी,
तब उसने मेरे वशीभूत होकर ही तो ये कसम थी खाई,
खुले केशों को दुर्योधन के रक्त से धो कर बाँधने की कैसी कसम थी खाई,
ये मैं ही तो थी,जिसने अश्वत्थामा से पांचाली के पाँच पुत्रों का वध करवाया,
मैं ही सोच में थी बड़े बड़े योद्धाओं की,जिसने महाभारत का युद्ध करवाया।।
अपनों ने खून बहाया अपनों का,
ये मैंने किसी रीत चलाई,
न भाई का प्रेम रहा भाई से,
मैं क्यों भाई भाई के बीच मे आई।।
आत्मग्लानि के भाव से हिवड़ा नफरत का भर आया,
मैं विलय हो जाना चाहती हूँ प्रेम तुम्हारे भीतर ही,
स्वरूप तेरा मुझ को है भाया।।
कौन कौन हैं प्रेम घर मे तेरे,आज मुझे तुम ये तो बताओ,
क्या शिक्षा,संस्कार मिले तुझे तेरे अपनों से ही,
थोड़ा प्रेमदीप मुझमें भी जलाओ।।
सह्रदय मेरे पिता है और करुणा है मेरी प्यारी सी माता,
सन्तोष बहन है और मधुरता से है अर्धांगिनी का नाता।।
स्नेह बेटी है,सौहार्द पुत्र है,धैर्य मेरा प्यारा भ्राता।।
इन सब ने ही तो मिल कर मुझे ऐसा अनोखा बनाया है,
हर कोई चाहता है मुझ को,मुझे खुद पर गर्व हो आया है।।
दे उत्तर प्रेम ने फिर नफरत से भी उसका परिचय चाहा,
अधोलिखित जो कहा नफरत ने,प्रेम का सिर घणा भनभनाया।।
अहंकार मेरे पिता हैं और दुर्भावना है मेरी माता।
ईर्ष्या बहना,लालच है भाई और प्रतिशोध से पति का नाता।।
इन सबके साथ रही मैं बचपन से,
और सीखे बस इन सब से ही मैंने कुसंस्कार।
काश छोड़ कर इन सब अपनों को,
कर लेती प्रेम बस तुझसे प्यार।।
ऐसा हश्र न होता फिर मेरा,
होती मेरी भी जयजयकार।
आज जान लिया है मैंने,
प्रेम ही हर रिश्ते का आधार।।
मैं न होती,गर बस तुम होते,
फिर तो जग में न होती कोई बुराई।
साँझा चूल्हा होता सबका,
जानते फिर सब क्या होती है पीर पराई।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः की बजने लगती
चहुँ दिशा में शहनाई।।
किसी सरहद पर न होता कोई शहीद फिर,
सहनी न पड़ती अपनों को अपनों की जुदाई।।
जहाँ मैं हूँ,मनभेद है वहाँ,
जहाँ मैं हूँ, बिखराव है वहाँ, 
जहाँ मैं हूँ,रिश्तों में दरार है वहाँ,
जहाँ मैं हूँ,सुलगता है जहान वहाँ,
आज मुझे मेरे अस्तित्व से ही घिन सी आने लगी है,
नफरत का अंकुर न ही पनपे किसी हिया में,प्रेम की ठंडी सी छाँव घणी गहराने लगी है।।
           स्नेह प्रेमचन्द


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