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सीता,द्रौपदी और दामिनी poem by sneh premchand

सुन द्रौपदी की पीड़ा जानकी भी फिर रुक न पाई।
उसने भी अपने मन की पाती, द्रौपदी, दामिनी
दोनों को सुनाई।।
आज मैं कहती हूँ,है जो मेरे दिल मे,
छला था जिसने,था बहना वो मेरा पिया।।
सोच सोच सिहर जाती हूँ,
मेरे अपनों ने ही मुझ को जख्म दिया।।
मैं जनक दुलारी,थी पूरी मिथिला की प्यारी।।




धरा से जन्मी,धरा में ही समाई,
मेरी तो कहानी ही है जग से न्यारी।।
भूमि पर हल चलाते मिली तात जनक को,
भूमिजा को पिता के घर  मिला अथाह सा प्यार।
मैंने अपना फर्ज निभाया सदैव ही,
पर वनवास बना मेरा संसार।।
जनक सुता, दसरथ पुत्रवधु हो कर भी,
सरल न रहा मेरा जीवन आधार।।
 हुआ स्वयंवर मेरा भी,
मिले मुझे मेरे रघुनाथ।
गर्व हुआ मुझे मेरी किस्मत पर,
मिला मुझे जब उनका साथ।।
छोड़ के मिथिला आई अयोध्या,
खिल आए मेरे जीवन मे रंग सारे।
इतना प्रेम सम्मान मिला मुझे,
जितने हों अनन्त गगन में तारे।।।
सब अच्छा था,सब बढ़िया था,
हुई एक दिन राघव अभिषेक की तैयारी।
नियति को कुछ और ही मंजूर था,
राज़ छोड़ वन जाने की आ गई थी बारी।।
पल भर भी न सोचा मैंने,
पिया की खातिर राज महल सुख,
त्याग दिए सारे।
धारा भगवा चोला,मैं गई वन संग पिया के,
मना कर सबके सब थे हारे।।
सब सुखों से ऊपर थे मेरे लिए मेरे रघुनाथ।
कुछ और नही मुझे चाहिए,
चाहिए था बस उनका साथ।।
हर सुख दुख में मैं रही बन उनकी परछाई।
पल भर के लिए भी न मैंने छोड़ा उनको,
संग प्रेम की उनके बंसी बजाई।।
पर एक दिन रावण ने मेरा किया हरण,
मुझे छल से वो लंका ले आया।
मैं तडफी,सिसकी,बिलखी, रोई,
पर उस दानव को तरस न आया।।
रावण दुशाशन से पुरूष आज हर समाज मे,
हर स्थान पर बड़ी आसानी से मिल जाते हैं।
भरी सभा मे होता है चीर हरण,
हम मौन से खड़े रह जाते हैं।।
सतयुग से कलियुग तक आज क्यों,
कोई अंतर नही देता है दिखाई।
उस युग मे भी अपमानित होती थी नारी,
वो आज भी है क्यों होती आई।।
रावण तो चलो बेगाना था,
मुझे तो मेरे अपनों ने भी बहुत सताया।
गर्भावस्था में त्याग दिया मुझे राम ने,
छल से मुझे वन में भेजा,तरस न आया।।
रावण की लंका से पिया जब मुझे छुड़ा कर
लाये थे,
दी थी मैंने तब भी अग्नि परीक्षा,
सुन टिप्पणी धोबी की राम अकुलाए थे।।
मैंने तो उनके लिए छोड़े महलों के सुख सारे।
उन्होंने तो मुझे ही छोड़ दिया,
क्या सच मे थे वे प्रीतम प्यारे।।
लव कुश को मैंने जंगल मे,
अकेले ही तो जन्म दिया।
बनी मात पिता मैं दोनों ही,
पालन पोषण का ज़िम्मा मैंने ही लिया।।
आये एक दिन राम मगर ,
ना मैंने उनका सामना किया।
करी धरा से मैंने प्रार्थना,
फट जाए मां धरा का हिया।।
यही हुआ मैं चली गयी फिर,
जहाँ से था मैंने जन्म लिया।
धरा से जन्मी,धरा में ही समा गई थी सिया।।
नही लौट कर आई मैं फिर पास पिया के,
नही चुना फिर मैंने अपना पिया।
क्षोभ था मन मे,शिकायत थी मन मे,
मुझ पतिव्रता ने ऐसा क्या कर दिया।।
पुरुष प्रधान इस दम्भी समाज ने,
सीता को इतना सता दिया।
धरा से जन्मी,फिर धरा में ही समा गई सिया।।
सुनो द्रौपदी, एक बात मैं मेरे दिल की आज तुम्हे बताती हूँ।
मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले राम को भी
मैं बक्श नही पाती हूँ।।
अपने ही जब देते हैं जख्म तब,
मरहम कहीं नही मिलता।
बागबां ही घर उजाड़े चमन को,
एक भी पुष्प नही खिलता।।
सतयुग में भी नही बक्शा था नारी को,
वही कहानी द्वापर और कलियुग में भी दोहराई।
किस प्रगति का रोना रोते हैं हम
जब नारी की होती है रुसवाई।।
सीता द्रौपदी फिर उन्मुख हुई दामिनी के,
बोली,अब सुनाओ तुम हमे अपनी कहानी।
हम दोनों ने तो कह दी दिल की मुँह जुबानी।।
         स्नेह प्रेमचन्द




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