Skip to main content

सीता द्रौपदी और दामिनी poem by sneh prem chand

सतयुग की सीता, द्वापर की द्रौपदी और कलियुग की दामिनी,तीनों, एक दिन स्वर्ग में मिल जाती हैं।
खोल कपाट वे अपने हिया के मन की पाती एक दूजे को पढ़ाती हैं।।
कहा द्रौपदी ने सीता से,एक ही नाव के हैं हम तीनों मुसाफिर,
सता गया हमें समाज ये पुरुष प्रधान।
रानियाँ होकर भी हम न बच पाई,
आम नारी को कैसे बख्शता होगा ये निर्मम जहान।।
अग्नि से जन्मी मैं, पिता द्रुपद ने मुझे दिल से कभी नही अपनाया,
थी पुत्र प्राप्ति की इतनी अधिक लालसा उनकी,
मेरा होना उनको कतई न भाया।।
मेरे जन्म से ही दिल टूटा मेरा,
मैंने खुद को जाने कितनी मर्तबा समझाया।
स्वयंवर में मेरा वरण किया पार्थ ने,
पर सारे भाईयों की मुझे अर्धांगिनी बनाया।।
वस्तु नही व्यक्ति थी मैं,
क्यों नारी होकर भी माँ कुंती को ये समझ न आया।
कर दिया विभाजन मेरा पांच पांच पतियों में
मुझे ऐसा जीना कभी न भाया।।
मन से तो नारी एक ही पुरुष को करती है अंगीकार।
तुम ही सोचो मेरी व्यथा,
मैंने किस विध की होगी स्वीकार।।
फिर भी समझा इसे भाग्य का लेखा,
मैंने पाँचों पतियों को अपनाया।
नहीं मिलेगा इतिहास में कोई मुझ सा उदहारण,
कर प्रेम मैंने सबसे,
अपना पत्नी धर्म निभाया।।
चाहा तो बस पार्थ को था मैंने,
पर कर्तव्य के सन्मुख प्रेम को बलि चढ़ाया।
समय चलता रहा मैं चलती रही,
मैंने कभी भाग्य का लेखा नहीं दोहराया।।
हद तो तब हो गई जानकी,
जब धूत क्रीड़ा में मुझे दाव पर लगाया।
भीष्म पितामह,गुरु द्रोण,धृतराष्ट्र सब मौन रहे,
अन्याय ने मुझ पर अपना सितम ढाया।।
मैं घुटती रही, मैं बनी रुदाली,
मैंने ही सवः की रक्षा हेतु माधव को बुलाया।
पाँच पाँच पतियों के होते दुष्ट दुशाशन,
मुझे भरी सभा मे केशों से खींच के लाया।।
इतिहास गवाह है आज भी बहना,
उस दिन के भयावह घटनाक्रम को
चाह कर भी समय  भी भूल न पाया।।
आज भी मेरी सिसकियों से सिसक रहा है संसार।
आज भी अस्मत लूटी जाती है जाने कितनी ही
द्रोपड़ियों की,पल रहे मानव चित्त में दुष्ट विकार।।
हर द्रौपदी के लिए नही आते कान्हा अब,
दुशाशन हर मोड़ पर मिल जाते हैं।
भरी सभा मे होता है चीर हरण,
मौन सा खुद का सब क्यों पाते हैं।।
धधकी प्रतिशोध की भयानक ज्वाला
अपनो ने अपनो का लहू बहाया।
खुद भगवान होते हुए भी मोहन,
महाभारत होने से रोक न पाया।।
अपनों ने जख्म दिए अपनों को,
आगे बढ़ कर न किसी ने मरहम लगाया।
लुटती हैं द्रौपदी, होते हैं युद्ध भाइयों में तब से ही
महाभारत ने ये कैसा रिवाज़ चलाया।।
मैं आज भी तडफ जाती हूँ सोच सोच
उस दिन की कहानी,
रूह कांप जाती है मेरी भीतर से,
सुना दी मैंने तुम्हें सब मुँह जुबानी।।
सुनो भूमिजा अभी तक भी मेरे,
कष्टों को नही लगा था विराम।
पुत्रशोक भी सहना था मुझे,
भाग्य ने कभी नही दिया मुझे आराम। 
बेटी हो कर भी तडफी,
पत्नी होकर भी सुलगी,
माँ होकर भी सिसकी मैं,
क्या क्या प्रकट करूँ दिल के उदगार।
दुष्ट अश्वथामा ने आधी रात सोये हुए ,
मेरे पांचो पुत्रों का किया था क्रूर संहार।।
क्या बीती होगी उस माँ के दिल पर,
सोच कर भी ये सोचा नही जाता।
सिसक रहा है आज भी इतिहास,
गुजरा वक़्त भी हादसों को नही भुलाता।।
प्रतिशोध लेकर भी ठंड न पड़ी छाती में मेरी,
बेशक खुले केशों को लहू से मैंने धोया था।
मैंने खोये असमय ही मेरे बहुत अपने,
ज़र्रा ज़र्रा फूट फूट कर रोया था।।
अब तुम कहो,सुन ली मेरी तुमने,
क्या सतयुग में भी तुमको किसी ने सताया था।
पुरूष प्रधान समाज ने अपना डंका
तब भी बजाया था।।
सुन द्रोपदी की पीड़ा फिर सिया भी सच मे
रुक न पाई,
अपनी व्यथा फिर उसने भी द्रौपदी और दामिनी को सुनाई।।

Comments

Popular posts from this blog

वही मित्र है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कह सकें हम जिनसे बातें दिल की, वही मित्र है। जो हमारे गुण और अवगुण दोनों से ही परिचित होते हैं, वही मित्र हैं। जहां औपचारिकता की कोई जरूरत नहीं होती,वहां मित्र हैं।। जाति, धर्म, रंगभेद, प्रांत, शहर,देश,आयु,हर सरहद से जो पार खड़े हैं वही मित्र हैं।। *कुछ कर दरगुजर कुछ कर दरकिनार* यही होता है सच्ची मित्रता का आधार।। मान है मित्रता,और है मनुहार। स्नेह है मित्रता,और है सच्चा दुलार। नाता नहीं बेशक ये खून का, पर है मित्रता अपनेपन का सार।। छोटी छोटी बातों का मित्र कभी बुरा नहीं मानते। क्योंकि कैसा है मित्र उनका, ये बखूबी हैं जानते।। मित्रता जरूरी नहीं एक जैसे व्यक्तित्व के लोगों में ही हो, कान्हा और सुदामा की मित्रता इसका सटीक उदाहरण है। राम और सुग्रीव की मित्रता भी विचारणीय है।। हर भाव जिससे हम साझा कर सकें और मन यह ना सोचें कि यह बताने से मित्र क्या सोचेगा?? वही मित्र है।। बाज़ औकात, मित्र हमारे भविष्य के बारे में भी हम से बेहतर जान लेते हैं। सबसे पहली मित्र,सबसे प्यारी मित्र मां होती है,किसी भी सच्चे और गहरे नाते की पहली शर्त मित्र होना है।। मित्र मजाक ज़रूर करते हैं,परंतु कटाक...

बुआ भतीजी

सकल पदार्थ हैं जग माहि, करमहीन नर पावत माहि।।,(thought by Sneh premchand)

सकल पदारथ हैं जग मांहि,कर्महीन नर पावत नाहि।। स--ब कुछ है इस जग में,कर्मों के चश्मे से कर लो दीदार। क--ल कभी नही आता जीवन में, आज अभी से कर्म करना करो स्वीकार। ल--गता सबको अच्छा इस जग में करना आराम है। प--र क्या मिलता है कर्महीनता से,अकर्मण्यता एक झूठा विश्राम है। दा--ता देना हमको ऐसी शक्ति, र--म जाए कर्म नस नस मे हमारी,हों हमको हिम्मत के दीदार। थ-कें न कभी,रुके न कभी,हो दाता के शुक्रगुजार। हैं--बुलंद हौंसले,फिर क्या डरना किसी भी आंधी से, ज--नम नही होता ज़िन्दगी में बार बार। ग--रिमा बनी रहती है कर्मठ लोगों की, मा--नासिक बल कर देता है उद्धार। हि--माल्य सी ताकत होती है कर्मठ लोगों में, क--भी हार के नहीं होते हैं दीदार। र--ब भी देता है साथ सदा उन लोगों का, म--रुधर में शीतल जल की आ जाती है फुहार। ही--न भावना नही रहती कर्मठ लोगों में, न--हीं असफलता के उन्हें होते दीदार। न--र,नारी लगते हैं सुंदर श्रम की चादर ओढ़े, र--हमत खुदा की सदैव उनको मिलती है उनको उपहार। पा--लेता है मंज़िल कर्म का राही, व--श में हो जाता है उसके संसार। त--प,तप सोना बनता है ज्यूँ कुंदन, ना--द कर्म के से गुंजित होता है मधुर व...