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Showing posts from March, 2020

ज़िंदगी एक पहेली poem by snehpremchand

ज़िन्दगी है एक अजब पहेली,मिल जुल कर सुलझानी है। ज़िन्दगी कुछ भी तो नहीं, सच मे तेरी मेरी  कहानी है।। कभी सुख कभी दुख के बादल,कभी धूप कभी छाया सुहानी है। पर बिन प्रेम के ज़िन्दगी सच मे बड़ी वीरानी है।। प्रेम की है एक सखी रूहानियत, वासना मात्र जिस्मानी है। मोहब्बत लेने का नाम नही, मोहब्बत देने की दीवानी है।। ज़रूरी नही मिलन ही हो मोहब्बत में, जुदाई की भी तासीर पुरानी है।।          स्नेहप्रेमचंद

जुगनू से thought by snehpremchand

जुगनू से चमक रहे ये तारे कह रहे हों जैसे साँझ सकारे लांघना न दहलीज़ अपनी चौखट की होगी ज़िन्दगी,तो आएंगे एक दूजे के द्वारे।। जान है तो जहान है किसी ने सही फरमाया है।। आज नही तो कल टल जाएगा, जो आया मुसीबत का साया है।।                       स्नेहप्रेमचन्द

लॉक डाउन poem by snehpremchand

उसी समय पर आफ़ताब की आरुषि धरा चरणों को छूती है। उसी समय पर इंदु ज्योत्स्ना, निज शीतलता से,उद्विग्न मनों को सुकून सा देती है।। वही पवन के ठंडे झोंके, वही अनन्त गगन में जुगनू से तारों की छटा निराली।। वही प्रकृति की है नयनाभिराम हरियाली, वही तरुवर पर कूकती कोई कोयल है काली। वही आँगन में छोटी सी चिरैया चहक चहक सी जाती है। वही ओढ़ धरा धानी सी चुनरिया, पहन पीत घाघरा घूमर नाच नचाती है। इनमे से नही हुआ लॉक डाउन किसी का, हमे ये क्यों समझ नही आती है??? रचनात्मकता के भी खुले खड्ग हैं, बस मन से कहो, दहलीज़ पर इसके दस्तक तो दे। ये रहती है सदा ही ततपर, बस सृजन के इन अग्निकुंड में, प्रयासों की कोई आहुति तो दे।। सृजन की नही कोई पाबंदी इसे विहंगमता की सहेली बनने दो।। प्रेम पर भी नही लगी कोई बंदिशें, इसे अनन्त सिंधु सा बहने तो दो। देने से ही लौट कर आता है ये, धर्म,सरहद,जाति से निकलकर  खुली फिजां में रहने तो दो।। अध्ययन पर नहीं कोई पाबन्दी इसे खुली सोच के विविध आयामो से  मिलने तो दो।। दीया ज्ञान का जलने तो दो। अज्ञान तमस हरने तो दो।। करुणा पर नहीं कोई पाबंदी, उसे हर मन मन्दिर में रहने ...

रवि रश्मियां thought by snehpremchand

रवि रश्मियाँ साँझ ढले उनींदी सी हो, लौट अपने घरौंदे को जाती हैं। इंदु की शीतल ज्योत्स्ना फिर, हौले हौले बाहर निकल कर आती हैं। दिन बदल जाता है रात में, आंखें हों फिर नींद से बोझिल, ख्वाबों की पींग बढ़ाती हैं।।           स्नेहप्रेमचंद

जान है तो जहान है। thought by snehpremchand

जान है तो है जहान, समझनी होगी ये सोच महान। कोई न बरतें कौताही घर की लक्ष्मण रेखा को लांघने का न करें प्रावधान।।        स्नेहप्रेमचंद

सहेजे सँवारे। poem by sneh premchand

सहेजेें सँवारे अपनी धरा को, और न हो अब इसका ह्रास । माँ तुल्य होती है धरा तो, मातृभूमि हमारी अति खास।। धरा पर रह जायेगा सब कुछ धरा, है सबको ये जानकारी। पर जब तक साँझ न आए जीवन की, करें हम धरा को स्वर्ग बनाने की तैयारी।। पर्यावरण का न हो अब हरण , हिंसा का बिगुल न कोई बजाए। *जीयो और जीने दो * की  सोच को, इस धरा पर सब अपनाएँ।। ऐसे ही तो सम्भव है सबका साथ सबका विकास । सहेजे सँवारे अपनी धरा को, और न हो अब इसका ह्रास ।।             स्नेहप्रेमचंद

संदेश प्रकृति का

पृष्ठभूमि में गयी प्रकृति,आज सन्मुख आई है। खग विहग सब शांत हैं,प्रकृति सच में मुस्काई है। किस बात की आपाधापी में भाग रहा था मूर्ख इंसान। क्यों खा रहा था निरीह प्राणी,किया प्रकृति ने दंड प्रावधान।। "जीयो और जीने दो" ईश्वरीय कार्यों में न बनो व्यवधान।। चार दिनों की इस ज़िन्दगी में,प्रेम प्रेत का पहनों परिधान।।          स्नेहप्रेमचंद

महाभारत से मन को thought by snehpremchand

महाभारत से इस मन को माँ निज कृपा से रामायण बना दे। ख़ौफ़ज़दा है ये मन मेरा,इसे निर्भयता की लोरी सुना दे।। सुना था समस्या है तो समाधान भी है, माँ इस समाधान का आफ़ताब खिला दे।। तेरा साया हो जो सिर पर तूँ फर्श से अर्श तक पहुँचा दे।। इस घने अंधेरे में घबराए इंसान को सहजता के अमृत पिला दे। फिर ला दे वे दिन पहले से, जिजीविषा का कमल  खिला दे।।           स्नेह प्रेमचंद           स्नेहप्रेमचंद

भाव या शब्द thought by snehpremchand

मैंने भाव लिखे,तुमने शब्द पढ़े, फांसले यूँ ही बढ़ते गए, काश नयनो की भाषा आती पढनी तुम्हे, पर तुमने तो देखा ही नहीं, अश्क यूँ ही बहते गए।। स्नेहप्रेमचंद

सृजन thought by snehpremchand

हृदय के गर्भ से जब किसी भी रचना का सृजन सहज और अनायास रूप से होता है,वह उस रचना की नॉर्मल डिलीवरी है। दिमाग के गर्भ से जब जानबूझ कर भारी भरकम शब्दों का मेल सोचे समझे भावों संग कराया जाता है,यह इस रचना की सीज़ेरियन डिलीवरी है।।         स्नेहप्रेमचंद

जुड़ाव thought by snehpremchand

गर मुलाकातें ही प्रेम या दोस्ती का होते एकमात्र आधार होते तो पीर जग आज भी शाम से पहले राधा का नाम न लेता। कृष्ण के द्वारकाधीश बनने के बाद तो राधा की उनसे मुलाकात ही नही हुई। रूह से जुड़ाव तन के जुड़ाव से ज़्यादा ज़रूरी है।।         स्नेहप्रेमचंद

लिबास। poem by snehpremchand

काश रूह भी पहन लें ऐसा ही कोई लिबास। काम,क्रोध,लोभ,अहंकार का कोई भी वायरस, न छू सके उसके अंतर्मन को, बात ये सच मे खास।। प्रेम का मास्क पहन लें ये दुनिया सारी, एक बार जो पहने,फिर उतरे न कभी ये, हो ऐसी खुदा की खुद की गई तैयारी।। घृणा,हिंसा,ईर्ष्या के हाथ धोएं बार बार हम, मानवता न हो वैश्विक महामारी से हारी।। मोहबत ही एकमात्र रँगरेज है ऐसा जो पूरे विश्व को एक ही रंग में रंग देगा। हारेगी नकारात्मकता,जीतेगी सकारात्मकता, ईश्वर कष्ट निज सन्तान के हर लेगा।।             स्नेहप्रेमचंद

सबसे मधुर संगीत माँ। snehpremchandsnehpremchand

माँ ज़िन्दगी का सबसे सुंदर संगीत है,माँ बांसुरी से भी मधुर,तबले से भी अधिक सहज,शहनाई सी मीठी,सितार सी प्यारी,हारमोनियम से भी अधिक लयबद्ध,सारंगी से अधिक मनभावन,और सात सुरों ममता,प्रेम,करुणा,वात्सल्य,विनम्रता,कर्मठता,सहजता,से ओत प्रोत है,जितना लिखती हैं लेखनी,उतना ही कम है,शुक्रिया है लेखनी जो तू माँ पर चलती है।

बड़ा भाई। poem by snehpremchand

घर रहें,महफूज़ रहें। poem by sneh premchand

घर रहें,महफूज़ रहें,हमारे लिए ही जान  जोखिम में डाल रहे चिकित्सक सारे। धरा शुक्रगुज़ार है इनकी इतनी, जैसे अनन्त गगन में हों असंख्य तारे।। भगवान ही तो हैं ये सब, पहने हुए हैं श्वेत लिबास। आती है जब कोई घड़ी कष्ट की, होता इनकी महता का आभास।। भगवान को तो देखा नहीं आज तक, पर ईश्वरीय रूप है इन सब के पास।। बिन सोये सतत करते कितने अथक प्रयास। यूँ ही तो नही कहा जाता इन्हें सबसे खास।। इन्ही के बलबूते तो सम्भव है, सबका साथ सबका विकास।। इस वैश्विक महामारी के समर में ये पार्थ  से योद्धा हैं हमारे। कैसे जीते ये महाभारत,बता रहे घर रहने  को कृष्ण हमारे।। काश समझ आ जाए सबको ये साँझ सकारे। न कहीं आना,न कहीं जाना, रहना है बस अपने घर द्वारे।। शौक से ज़रूरतें सदा ही प्राथमिक हैं, करबद्ध सबके स्वस्थ रहने की कर रहे अरदास।। सब स्वस्थ हों,सब निर्भय हों,जिजीविषा का न कभी ह्रास।। इन्ही भावों की अलख जले बस साँझ सकारे। घर रहें,महफूज़ रहें, धरा पर ईश्वर ही हैं चिकित्सक सारे।।                   स्नेहप्रेमचंद

बेटी

क्या लिखूं तेरे बारे में poem by snehpremchand

माँ क्या लिखूँ तेरे बारे में, तूने तो मुझे ही लिख डाला। सीमित उपलब्ध संसाधनों में, कैसे ममता से था तूने हमे पाला।। जीवन का अमृत पिला गई हमको, खुद पी गयी कष्टों की हाला। एक बात आती है समझ माँ मुझको, तूँ जीवन की सबसे बेहतर पाठशाला। कर्म की कावड़ में जल भर मेहनत का, माँ तूने हम सब को आकंठ तृप्त कराया। क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं, सबसे शीतल था माँ तेरा साया।। माँ तेरे होने से सतत बजती थी ममता शहनाई है कौन सी ऐसी भोर साँझ, न जब तूँ हो मुझे याद आई।। मेरी पतंग की माँ तूँ ही डोर थी, उड़ने को,तूने अनन्त गगन दे डाला। कभी खींचा भी,कभी ढील भी दी, पर कटने से तूने सदा संभाला।। माँ क्या लिखूं तेरे बारे में, तूने तो मुझे ही लिख डाला।। आज भी मन के एक कोने में तूँ, बड़ी शान से रहती है। वो तेरे होने की अनुभूति ही,  मानो सुमन में महक सी रहती है।। सोच सोच होती है हैरानी, ये तूने कैसे सब माँ कर डाला?? हमे तो अमृत पिला गयी,  पर खुद पी गयी कष्टों की हाला।। मेरी लेखनी भी माँ तुझको, करती है शत शत प्रणाम। कैसे भाव खेलते शब्दों से, गर कराया न होता तूने अक्षरज्ञान।। मेरी हर रचना समर्पित माँ तुझको, तुझे पाकर...

कुछ भूला याद दिलाने आया है poem by snehpremchand

कुछ भूला सा हम सबको ये याद दिलाने आया है। सच वायरस कुछ अहसास कराने आया है।। आडम्बर से है सादगी बेहतर,ये बतलाने आया है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा से बेहतर है सहजता,इसकी आनंदानुभूति कराने आया है।। व्यर्थ की आपाधापी से मुक्ति दिलाने आया है।। बेशक बना ली हो सबने एक सामाजिक दूरी, अपने ही घर मे अपनों को अपनो से मिलाने आया है।। भागती दौड़ती सी ज़िन्दगी में एक विराम लगाने आया है। कितना काम खामोशी से करते हैं नौकर घर के, हों संवेदनशील हम उनके लिए,ये सुझाने आया है।। घर आँगन की माटी महक की अहमियत बताने आया है। घर के खाने की सौंधी महक की महत्ता समझाने आया है। सारहीन है परनिंदा,एकांत जीवन की अनुभूति कराने आया है। बाह्यमुखी से बनें हम अंतर्मुखी,हमे शांत बने रहना सिखाने आया है। आत्म अनुशाशन,आत्मसंयम,आत्मज्ञान,आत्मसुधार  आत्म रूपांतरण,आत्ममंथन कराने आया है।।  *उपवास रखे इंसा को खास*ये सार्थक कराने आया है। जल वायु ध्वनि प्रदूषण सही नही होते,ये बतलाने आया है। बरसों से चली गयी थी जो चिड़िया आँगन से,उसकी चहक सुनाने आया है। आब ए आईना मन की जो हो गयी थी धूमिल,उसे लशकाने आया है।। भृष्टाचार की काल...

धन्य है कोख

धन्य हैं कोख उन माओं की,जिन्होंने जन दिए चन्द्रशेखर,राजगुरु और भगतसिंह से वीर, आज बलिदान दिवस पर शत शत नमन उनको,आज़ादी के तरकश के थे वे नायाब से तीर।।       स्नेहप्रेमचन्द

ज़रा याद इन्हें भी कर लो poem by snehpremchand

शहीदे आज़म भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव को शत शत नमन और भावभीनी श्रद्धांजलि है हमारी। क्यों नही फटा धरा का हिया,क्यों नही अनन्त गगन डोला उस दिन,ये जिज्ञासा है हमारी।। क्यों मानवता हुई दानवता उस दिन,क्यों खोए हमने लाल हमारे, युग आएंगे,युग जाएंगे,पर इनको भूल न पाएंगे सारे।। फिज़ां में आज भी महक है इनके शौर्य की,फिरंगी जीत कर भी थे इनसे हारे, एक कशिश,एक मलाल सा रहता है हिवड़े में,जब जब हमने ये भाव विचारे। रंग चोला बसन्ती,हो गए हंसते हंसते,तीनो कुर्बान जब तक सूरज चाँद रहेगा,याद करेगा इनको जहान।।

सब निर्भय हों prayer by snehpremchand

सब स्वस्थ हों,सब निर्भय हों, अबऐसा कुछ करदे मेरे दाता। ये अंधेरा घना छा रहा, तेरा इंसान घबरा रहा, ऐसे में समझ नही कुछ आता।। सब स्वस्थ हों,सब निर्भय हों, अब ऐसा कुछ करदे मेरे दाता। प्रीत प्रेम के रंग से रंग दे  रूह मानव की,भाग्य निर्माता। भेज कोई ऐसा रँगरेजा, हो ऐसा रँगना जिसे आता।। सब निर्भय हों,सब स्वस्थ हों अब ऐसा कुछ करदे मेरे दाता।। घृणा हनन हो,लोभ शमन हो ईर्ष्या दमन हो,सदभाव नमन हो ऐसा भाव हो सबको सुहाता। आस विश्वास की टूटे न डोर, हो प्रेम प्रीत का मीठा सा शोर, निराशा के इस घने तमस में, आए आशा की उजली सी भोर।। संशित और आशंकित हिवड़ा, कभी कुछ बढ़िया नही कर पाता। सब सहज हों,सब निर्भय हों, ऐसा कुछ कर दे मेरे दाता।। बड़ा कमज़ोर है आदमी, अभी लाखों हैं उसमें कमी, कमियों को गुणों में बदलना, एक तुझे ही तो है आता।। सब निर्भय हों,सब स्वस्थ हों, ऐसा कुछ करदे मेरे दाता। थम सी गयी है ये ज़िन्दगी, उल्लास ऊर्जा से रंग दे मेरे दाता।। दुख हर ले और सुख करदे, है तूँ ही तो सबका भाग्य विधाता।। आनन्द सा भर दे, स्पंदित चेतना करदे, मानव मन है अति अकुलाता।। एक भरोसा ही तो तेरा, जेहन में सारी खुशियाँ लाता। ...

संगठन में शक्ति। poem by snehpremchand

सच में ही सुंदर हो जाते हैं सामूहिक प्रयास लक्ष्य गर जनकल्याण है तो,सफलता का ही होगा आभास। लोकतंत्र में उभरी राष्ट्रीयता, संगठन में शक्ति का होता है वास।। सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामया यही भाव आज लग रहा खास।।          स्नेहप्रेमचंद

नेत्रदान poem by snehpremchand

प्रार्थना poem by snehpremchand

प्रार्थना में सच मे ही है शक्ति इतनी असम्भव भी सम्भव हो जाता है। यूँ ही तो नही कहा गया भगत के आगे,  भगवान भी झुक जाता है।। सामूहिक प्रार्थना में होता है बल अधिक,  सच मे मनचाहा पूरा हो जाता है। आस्था है, ये अंधविश्वास नही, धीरे धीरे सब समझ मे आता है। होता है समर्पण गर सच्चा, द्रौपदी को कान्हा मिल जाता है। आओ करें सब मिल कर ये प्रार्थना जग से आपदा ये चली जाए भारी, वो देखो आ रही है माँ दूर से, करके शान से सिंह सवारी।। अपने बच्चों का कष्ट हरेगी, मरुधर में हरियाली खिलेगी। खौफ का जो छाया है अंधेरा निर्भयता की ज्योत्स्ना बिखरेगी।। सब सहज निर्भय होंगे, ज़िन्दगी फिर से अपनी पटरी पर चलेगी।।        स्नेहप्रेमचंद

संकट कटे मिटे हर पीरा

संकट कटे मिटे हर पीरा जो सुमिरे हनुमत बलबीरा जीतेगी मानवता इस वैश्विक महामारी से,धर मानव मन मे धीरा। संयम और संकल्प से जीतेंगे हम कह गए देखो सन्त कबीरा।।       स्नेहप्रेमचंद

सत्यमेव सदा जयते। poem by sneh premchand

इंद्रधनुष। poem on holi by snehpremchand

हो सबके जीवन में उजली सी भोर by snehpremchand

सब स्वस्थ हों,सब निर्भय हों, हो सबके जीवन मे उजली सी भोर। कोई ख़ौफ़ न हो,कोई चिंता न हो, मिले सबको जीवन में सुरक्षित सा ठौर।। "जीयो और जीने दो" सब इस उक्ति को दे अंजाम। सब प्रेम करें एक दूजे से सर्वत्र सर्वदा और अविराम।। हे दीनबन्धु,हे दयालु भगवन, करो जगत का अब कल्याण। बड़ा कमज़ोर है आदमी,अभी लाखों हैं उसमें कमी,देदो विवेक सदबुद्धि का दान।। पथ भर्मित सा है इंसा,आपदा आयीं है बड़ी घोर। सब स्वस्थ हों,सब निर्भय हों, हो सबके जीवन मे उजली सी भोर।।          स्नेहप्रेमचंद    

प्रकृति जीने का आधार poem by snehpremchand

जीवन का प्रतीक प्रकृति,प्रकृति ही है जीवनाधार। सहेजे,सँवारे इसे प्रेम से,करना सीखें मन से प्यार। विविधता से परिपूर्ण,जीवंत,विहंगम प्रकृति हमारी रंगों से भरी,जीवमदायिनी,नयनाभिराम है सारी।। जिजीविषा को जगाती,उमंग,उल्लास को सजाती सृजन करती सदाजाने कितना,आशादीप जलाती हवा,जल,धरा को कर रहे विषाक्त हम,ढेरों बार| जीवन का प्रतीक प्रकृति,प्रकृति ही है जीवनाधार। मांसाहार की परंपरा ही,ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज़िम्मेदार। त्याग कर अपनी वहशी आदतें,करें शाखाहार से प्यार।। हो बेहतर,निर्दोष,निरीह,बेजुबान प्राणियों पर कभी न चलाएं निर्मम कटार। ध्यान से सोचो प्रकृति ने हमे खाने को दिए हैं अनेकों उपहार।।      स्नेहप्रेमचंद

दौर poem by sneh premchand

मैया। poem by snehpremchand

दुखद। by snehpremchand

सत्संग। a poem by snehpremchand

पढ़ सको तो। by snehpremchand

पढ़ सको तो पढ़ लेना प्रिय मेरे नयनों की सीधी सी भाषा। लब शायद न कर पाएं बयां पर खामोशी की भी होती है भाषा।। सजल हों नयन,हो भाव प्रबल तब पक्का ही  होगी कोई न कोई तो बात हर बात बताई नही जाती, खामोशी पहुंचाती है आघात।। शक्ल देख हरारत पहचानने वाली माँ सा तुम भी प्रिय बन जाना, नाज़ुक सा है ये दिल मेरा, देखो कभी न मुझे रुलाना।।         स्नेहप्रेमचन्द

नेपथ्य by snehpremchand

एकदम से नही,पीहर धीरे धीरे ही होता है पराया। माँ बाप के राज में होती है शीतल सी छत्रछाया।। ज्यूँ ज्यूँ मात पिता हो जाते हैं बूढ़े,अशक्त और बीमार। लाडो के नाज़ नखरों पर भी समझौतों की पड़ जाती है बौछार।। जो कर देते थे नयन अयाँ, अल्फ़ाज़ों को नही करना पड़ता था बयाँ माँ बिन कहे ही सब समझ जाती थी, हौले से हाथ पकड़ कमरे में ले आती थी।। वो भी क्या दिन थे,था जब उनका सिर पर ठंडा साया।  एकदम से नही,पीहर धीरे धीरे ही होता है पराया।। वो कुछ लेने नहीं आती, उसकी खोजी सी नज़रें ढूंढती है अनमोल से लम्हे बचपन के,अपनी गुड़िया,और वो पल, जब मात पिता का मुख्य होता था किरदार। उसका भी होता था एक खुद का कमरा, अब एक कोने की भी नही रहती हकदार।। अब वो पहले सी ज़िद्द नही करती, मन हो या न हो,औपचारिकता भरे रिश्तों में सहज होने का अभिनय सा करती, फिर एक दिन जब मात पिता  ले लेते हैं जग से विदाई। फिर तो पीहर के नाम से ही दिल की  चौखट पर दस्तक देने लगती है तन्हाई फिर वो लहर,वो कसक,वो इच्छा, जाने कहाँ ज़मीदोज़ हो जाती है। नेपथ्य के पीछे चली जाती है बुआ, और भतीजी आगे आ जाती है।।           ...

जीवनपथ by sneh premchand

याद। by snehpremchand

दुनिया से जाने वाले चाहे कहीं भी जाते हों, सत्कर्म करके गए होंगे तो, धरा गगन दोनों ही जगह उन्हें याद किया जाएगा। सत्कर्म ही असली बैंक बैलेंस है व्यक्ति का, ज्ञान ही है उनका कार्ड आधार।। सकारात्मक सोच है ए टी एम व्यक्ति का, सद्भावना निभाती  चेक बुक का किरदार।। भौतिक सुखों से नही मिल सकती साची खुशी, आज नही तो कल समझ मे सबकी आएगा। करके गए हैं जो सत्कर्म, धरा गगन दोनों पर ही उन्हें याद किया जाएगा।।               स्नेहप्रेमचंद

साहित्य समाज का दर्पण by snehpremchand

प्रकृति

प्रकृति सिखाती है सदा हमे समभाव का अदभुत पाठ। धनी निर्धन सबके लिए है ये एकसी, नहीं चित्त में इसके कोई भी गांठ।। एक सी ही धूप देता है आदित्य सबको, इंदु एकसी ज्योत्स्ना की शीतलता देता है। पवन,पहाड़,नदियाँ या सागर नीर एक जैसा ही व्यवहार है सबके लिए, सबके लिए एक सी ही चलती है समीर।। एक शिक्षा और प्रकृति ने हमसब को बखूबी सिखाई है, करो प्रेम सम्पूर्ण प्राणी जगत से, आज फिजां यही सन्देसा लाई है।। निरीह,निर्दोष,बेजुबान जन्तुओं पर, क्यों हमने कटार चलाई है।। स्नेहप्रेमचंद

ज़िक्र