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वो बचपन कितना प्यारा था। by snehpremchand

वो बचपन सच में कितना प्यारा था,
जहाँ लड़ते ,झगड़ते,फिर मिल जाते
वो सच में कितना अदभुत न्यारा था।।
जब भी ज़िन्दगी में उलझन होती थी,
तब माँ की सुखदायक गोदी होती थी,
पिता का सर पर कितना ठंडा सा साया था,
 विहंगम से जग में लगता न कोई  पराया था,
औपचारिकता की बड़ी बड़ी सी,मज़बूत सी,
चिन ली सबने भावहीन सी निष्ठुर दीवारें हैं।
 कोशिश कर पार भी देखना चाहें अगर हम,
 लगती बेगानी,बेरुखी निष्प्राण सी मीनारें है।।
तब दी के बीच तेरा मेरा न कभी भी होता था,
 अहम से वयम था,सब का सब कुछ होता था।
 पूरा प्रेममय सा जहान हमारा सारे का सारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
माँ इंतज़ार करती रहती थी,
वो सब से बड़ा सहारा था।
बाबुल के अंगना में,
चिड़िया का बसेरा बड़ा दुलारा था।।
वो बचपन कितना प्यारा था,
नही बोलता था जब कोई अपना,
चित्त में हलचल हो जाती थी।
खामोशी करने लग जाती रही कोलाहल,
भीड़ में भी तन्हाई तरनुम बजाती थी।।
किसी न किसी छोटे से बहाने से,
मिलन की आवाज़ आ जाती थी।
 बड़े अहम छोटे हो जाते थे,
सहजता लंबी पींग बढ़ाती थी।
सबने मिलजुल कर बचपन अपना निखारा था,
वो बचपन सच में कितना अनमोल, प्यारा था।।
अपनत्व के तरकश से सब,प्रेमतीर के चलाते थे।
रूठ जाता था गर कोई,झट से सब उसे मनाते थे
नही मानता गर कोई,उसे प्रलोभन से ललचाते थे
लेकिन जीवन मुख्य धारा में,उसे अवश्य लाते थे
दुर्भावतमस को बड़ी सहजता से,
हर लेता, प्रेम भरा उजियारा था।
वो बचपन सच में कितना अनमोल प्यारा था।।
अभाव का प्रभाव होता था ज़रूर,
जब मिल जाता कुछ होता बड़ा गरूर।
अब सब मिल कर भी वो खुशी नही मिलती,
अब हर कली पुष्प बन कर नही खिलती।
छोटे छोटे से सपनो का होता सुंदर गलियारा था,वो बचपन कितना प्यारा था।।
अहम से वयम का बजा देते थे हम शंखनाद।
छोटी छोटी बातों को नही रखते थे याद।।
माँ की चूल्हे की रोटी का स्वाद ही कितना न्यारा था,वो बचपन कितना प्यारा था।।
पापा का होना ही बहुत कुछ होता था,
एक पूरा युग ही उनमें समाया था।
सब लगता था सरल,सहज,सुंदर,
जैसे किसी सागर का शांत किनारा था।।
वो बचपन कितना प्यारा  था।।
उन्मादी सा बचपन था,
नयनो में सुंदर सपने थे,
पापा का साया सिर पर था तो
सारे खिलौने अपने थे।
हर दिन होली होता था,
हर रात दीवाली होती थी।
चंचलता दिन भर थक कर
यामिनी में चैन की निंदिया सोती थी।
हर उत्सव खास बन जाता था,
जब भीड़ अपनो की होती थी।
अनुरागिनी उषा का दर्द आफताब,
के सीने पर चैन से सोता था।
जब जी चाहे नन्हा चित्त हंस लेता,
जब जी चाहे वो रोता था।
लोग क्या सोचेंगे,क्या कहेंगे
न इन बातों से कोई लेना देना होता था
न धन दौलत की हाय हाय थी
न कुछ अधिक पाना न ही कुछ मन खोता था,समय कब पंख लग कर उड़ गया
हमने न ही कुछ भी संवारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
सावन आने पर सब मिल कर लेते थे हिंडोले
कहीं उड़ती पतंग,कहीं मस्ती करते मलंग,
मनचाहे मनमर्ज़ी के शर्बत में शरारत की चीनी घोले।।
जब ऊर्जा और ऊष्मा मिल कर लेती थी अंगड़ाई,
जब साईकल से होती थी हमने दौड़ लगाई,
जब चिता हमारी मात पिता को होती थी,
तब कोई बेबसी घुटन के आंसू न रोती थी,
वो भी क्या दिन थे,जब हर मित्र बना हरकारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
जब भी आता था गुस्सा या 
कोई भी चित्त में चिंता होती थी,
झट से माँ का आँचल मिल जाता था
मैं बड़े चैन सोती थी।।
अब न वो आँचल मिलता है,
न किसी को है कोई सरोकार।
न अब रूठना आता है
और ज़िद्द करना भी छोड़ दिया,
न कोई ज़िद्द ही करेगा पूरी
न रूठे जो कोई मनाएगा
समझ का दायरा कितना न्यारा था
वो बचपन कितना प्यारा था।।
         स्नेहप्रेमचंद

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