एकदम से नही,पीहर धीरे धीरे ही होता है पराया।
माँ बाप के राज में होती है शीतल सी छत्रछाया।।
ज्यूँ ज्यूँ मात पिता हो जाते हैं बूढ़े,अशक्त और बीमार।
लाडो के नाज़ नखरों पर भी समझौतों की पड़ जाती है बौछार।।
जो कर देते थे नयन अयाँ,
अल्फ़ाज़ों को नही करना पड़ता था बयाँ
माँ बिन कहे ही सब समझ जाती थी,
हौले से हाथ पकड़ कमरे में ले आती थी।।
वो भी क्या दिन थे,था जब उनका सिर पर
ठंडा साया।
एकदम से नही,पीहर धीरे धीरे ही होता है पराया।।
वो कुछ लेने नहीं आती,
उसकी खोजी सी नज़रें ढूंढती है अनमोल
से लम्हे बचपन के,अपनी गुड़िया,और वो पल,
जब मात पिता का मुख्य होता था किरदार।
उसका भी होता था एक खुद का कमरा,
अब एक कोने की भी नही रहती हकदार।।
अब वो पहले सी ज़िद्द नही करती,
मन हो या न हो,औपचारिकता भरे रिश्तों में
सहज होने का अभिनय सा करती,
फिर एक दिन जब मात पिता
ले लेते हैं जग से विदाई।
फिर तो पीहर के नाम से ही दिल की
चौखट पर दस्तक देने लगती है तन्हाई
फिर वो लहर,वो कसक,वो इच्छा,
जाने कहाँ ज़मीदोज़ हो जाती है।
नेपथ्य के पीछे चली जाती है बुआ,
और भतीजी आगे आ जाती है।।
स्नेहप्रेमचंद
अयाँ---इज़हार
नेपथ्य--पर्दे के पीछे
ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं,आप भी इनसे सहमत हों,ज़रूरी नहीं
ReplyDeleteआप की प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणा का कार्य करेगी
ReplyDeleteकटु सत्य
ReplyDeletevery nice poem.
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