सहेजेें सँवारे अपनी धरा को,
और न हो अब इसका ह्रास।
माँ तुल्य होती है धरा तो,
मातृभूमि हमारी अति खास।।
धरा पर रह जायेगा सब कुछ धरा,
है सबको ये जानकारी।
पर जब तक साँझ न आए जीवन की,
करें हम धरा को स्वर्ग बनाने की तैयारी।।
पर्यावरण का न हो अब हरण,
हिंसा का बिगुल न कोई बजाए।
*जीयो और जीने दो* की सोच को,
इस धरा पर सब अपनाएँ।।
ऐसे ही तो सम्भव है
सबका साथ सबका विकास।
सहेजे सँवारे अपनी धरा को,
और न हो अब इसका ह्रास।।
स्नेहप्रेमचंद
Comments
Post a Comment