जैसे हम मात्र और पितृ ऋण से उऋण नहीं हो सकते,उसी प्रकार हम वतन ऋण से उऋण नहीं हो सकते।अपना ही वतन तो होता है जिसकी फिजां में जिंदगी का परिचय अहसासों से होता है।अपना ही वतन तो होता है जहाँ किसी भी संज्ञा,सर्वनाम,विशेषण का बोध होता है।
वो अपना ही वतन होता है जहाँ मात पिता से संस्कार,प्रेम,वात्सल्य,अनुराग मिलता है।ज़िंदगी के कीचड़ में व्यक्तित्व का कमल अपने वतन में ही तो खिलता है।विद्यालयों में जहां अक्षरज्ञान मिलता है,जहाँ वतन के समाज मे ही परम्पराबोध होता है,जिस वतन की मिट्टी का अन्न खा कर हम जीवन यापन करते हैं,जहाँ अपन्त्वबोध होता है,
जहां व्यक्तिगत सोच के पंखों को परवाज़ मिलती है,वो अपने वतन में ही होती है।मज़हबी तालीम भी यहीं मिलती है। जैसे लहरें बेशक थोड़ी देर तो सागर से दूर जाती हैं,पर लौट कर तो सागर की आगोश में ही आती हैं।जब सब कुछ अपने ही वतन में होता है,तो मात्र अधिक धनोपार्जन की खातिर हम सब कुछ छोड़ कर परदेस कैसे जा सकते हैं??बूढ़े मात पिता की आंखों में लम्बा सा इंतज़ार क्यों दे जाते हैं।वतन की माटी का ऋण उतारने का ख्याल क्यों जेहन की चौखट को नहीं खटखटाता??कुछ करना है तो अपने वतन में ही कीजिए,संभावनाओं के असीमित द्वार खुल जाएंगे।आप दस्तक तो दीजिये।वतन की माटी का ऋण तो हमारे जन्म से ही शुरू हो जाता है।
इसे उतारना हमारा नैतिक दायित्व है।आत्ममंथन आत्मबोध आत्मानुभूति ही इसका समाधान है।दिल और दिमाग दोनों ही इससे सहमत हैं। और आप????????
स्नेहप्रेमचंद
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