Skip to main content

धीरे धीरे मैं बदलने लगी हूँ। poem by snehpremchand

धीरे धीरे मैं बदलने लगी हूँ,
गहरी साँझ सी ढलने लगी हूँ।
होने लगा है परिचय मेरा खुद से ही,
एक नए व्यक्तित्व में पिंघलने लगी हूँ।
अब नहीं होते कोई गिले शिकवे किसी से,
समझौतों के कलमे पढ़ने लगी हूँ।
अब नाराज़ भी नहीं होती किसी से,
खुद ही रूठने खुद ही मन ने लगी हूँ।
उफ़नती नदिया सी बहती रहती थी 
जो कल कल मैं,
अब शांत सागर सी सिमटने लगी हूँ।
छोटी छोटी सी बात माँ कानों में कहने वाली, अब बड़े बड़े मसलों पर भी सब ठीक है,
बड़ी सहजता से असत्य कहने लगी हूँ।
मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ।
बात बात पर मुखालफत करने वाली मैं,
हर बात पर हामी भरने लगी हूँ।
अक्षर ज्ञान पाकर खुद को
 समझती थी जो जहीन मैं,
अब ज़िन्दगी की पाठशाला के 
पढ़ पाठ,ध्वस्त परस्त सी होने लगी हूँ।
मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ।।
कोई चिंता न छूती थी चित्त को कभी मेंंरे,
अब लम्हा दर लम्हा  चिंतन से,
 रोज़ ही रूबरू होने लगी हूँ।
निर्धारित पाठयक्रम रटने वाली सी मैं,
साहित्य के आदित्य से दमकने लगी हूँ।
बाहर घूमने को  तवज्जो देने वाली,
मन के गलियारों में विचरण करने लगी हूँ।
जमा घटा में उलझने वाली सी मैं,
हिंदी की कविता सी बहने लगी हूँ।
मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ।
कभी भी कुछ भी मांगने वाली मैं,
कहाँ तक हैं अधिकारों की सरहदें,
भली भांति जानने लगी हूँ।
कभी भी,कुछ भी,कहने वाली मैं,
अल्फ़ाज़ों पर ताला लगाने लगी हूँ।
भाव कहीं बह न जाएं नयनों के रास्ते,
अक्सर नज़रें चुराने लगी हूँ।
छोटी सी खुशी भी दिखाती थी ज़माने को,
अब हर दर्द अपना छिपाने लगी हूँ।
अब ख्वाइशें भी नहीं तड़ फाती मुझे,
हर हालात में शांति बरतने लगी हूँ।
धीरे धीरे मैं बदलने लगी हूँ।
अब नहीं कहती, क्या अच्छा लगता है,क्या बुरा
जो जैसा है उसे ही भाग्य समझने लगी हूँ।
परिवार की खुशी में ही है खुशी मेरी,
 अब मैं बखूबी समझने लगी हूँ।
अपने ख्वाब छोड़ कर,
 सपने औरों के बुनने लगी हूँ।
दूजे की खुशी में ही अब मैं,
 खुशी अपनी समझने लगी हूँ।
मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ।।
क़फ़स में कैद परिंदे सी मैं अब
 अनन्त गगन में उड़ने लगी हूँ।।
आज़माइशें भी रही,नेहमतें भी रही,
ज़िन्दगी को मुकम्मल समझने लगी हूँ।
खामोशी की भी होती जुबान है,
बिन कहे ही मन की कहने लगी हूँ।
मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ।
खैर ख्वाह हो या न हो कोई मेरा,
खुद को खुद का खैर ख्वाह समझने लगी हूँ।।
अब कभी नहीं करती इसरार कोई
अहसास ए ज़िम्मेदारी बरतने लगी हूँ।
मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ।।
बिन सोचे समझे कुछ भी कर देती थी मैं,
अब खौफ खुदा से,
सहमने लगी हूँ।। 
              स्नेहप्रेमचंद
क़फ़स---पिंजरा 
इसरार---ज़िद्द करना
खैर ख्वाह---शुभचिंतक
मुक्कमल---सम्पूर्ण
आज़माइशें---परीक्षाएं
खौफ ए खुदा---खुदा का डर
मुखालफत---विरोध

Comments

Popular posts from this blog

वही मित्र है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कह सकें हम जिनसे बातें दिल की, वही मित्र है। जो हमारे गुण और अवगुण दोनों से ही परिचित होते हैं, वही मित्र हैं। जहां औपचारिकता की कोई जरूरत नहीं होती,वहां मित्र हैं।। जाति, धर्म, रंगभेद, प्रांत, शहर,देश,आयु,हर सरहद से जो पार खड़े हैं वही मित्र हैं।। *कुछ कर दरगुजर कुछ कर दरकिनार* यही होता है सच्ची मित्रता का आधार।। मान है मित्रता,और है मनुहार। स्नेह है मित्रता,और है सच्चा दुलार। नाता नहीं बेशक ये खून का, पर है मित्रता अपनेपन का सार।। छोटी छोटी बातों का मित्र कभी बुरा नहीं मानते। क्योंकि कैसा है मित्र उनका, ये बखूबी हैं जानते।। मित्रता जरूरी नहीं एक जैसे व्यक्तित्व के लोगों में ही हो, कान्हा और सुदामा की मित्रता इसका सटीक उदाहरण है। राम और सुग्रीव की मित्रता भी विचारणीय है।। हर भाव जिससे हम साझा कर सकें और मन यह ना सोचें कि यह बताने से मित्र क्या सोचेगा?? वही मित्र है।। बाज़ औकात, मित्र हमारे भविष्य के बारे में भी हम से बेहतर जान लेते हैं। सबसे पहली मित्र,सबसे प्यारी मित्र मां होती है,किसी भी सच्चे और गहरे नाते की पहली शर्त मित्र होना है।। मित्र मजाक ज़रूर करते हैं,परंतु कटाक

सकल पदार्थ हैं जग माहि, करमहीन नर पावत माहि।।,(thought by Sneh premchand)

सकल पदारथ हैं जग मांहि,कर्महीन नर पावत नाहि।। स--ब कुछ है इस जग में,कर्मों के चश्मे से कर लो दीदार। क--ल कभी नही आता जीवन में, आज अभी से कर्म करना करो स्वीकार। ल--गता सबको अच्छा इस जग में करना आराम है। प--र क्या मिलता है कर्महीनता से,अकर्मण्यता एक झूठा विश्राम है। दा--ता देना हमको ऐसी शक्ति, र--म जाए कर्म नस नस मे हमारी,हों हमको हिम्मत के दीदार। थ-कें न कभी,रुके न कभी,हो दाता के शुक्रगुजार। हैं--बुलंद हौंसले,फिर क्या डरना किसी भी आंधी से, ज--नम नही होता ज़िन्दगी में बार बार। ग--रिमा बनी रहती है कर्मठ लोगों की, मा--नासिक बल कर देता है उद्धार। हि--माल्य सी ताकत होती है कर्मठ लोगों में, क--भी हार के नहीं होते हैं दीदार। र--ब भी देता है साथ सदा उन लोगों का, म--रुधर में शीतल जल की आ जाती है फुहार। ही--न भावना नही रहती कर्मठ लोगों में, न--हीं असफलता के उन्हें होते दीदार। न--र,नारी लगते हैं सुंदर श्रम की चादर ओढ़े, र--हमत खुदा की सदैव उनको मिलती है उनको उपहार। पा--लेता है मंज़िल कर्म का राही, व--श में हो जाता है उसके संसार। त--प,तप सोना बनता है ज्यूँ कुंदन, ना--द कर्म के से गुंजित होता है मधुर व

बुआ भतीजी