ऐसी भी क्या आन पड़ी है
जो बाहर घर से जाना ही पड़े।
घूमना ही है तो घूम लो मन के,
गलियारों में, देखो कहीं,
असमय ही ज़िन्दगी से हाथ
धोना न पड़े।।
रोते रहते थे जो समय का रोना,
अब मिला है तो जी लो संग अपनों के
फिर ये बेला दोबारा मिले न मिले।।
धुंध लाया है मंज़र जिन बूढ़ी आंखों का,
बन जाओ नयन उनके,
फिर ये मौका मिले न मिले।।
थाम लो कांपते से हाथ वे,
जिन्होंने उँगली
जकड़ चलना सिखाया था,
हो सकता है फिर ये हाथ मिले न मिले।।
महसूस करो उन मीठी किलकारियों को
फिर इतनी फुर्सत मिले न मिले।।
जी लो संग बचपन अपने मासूमो संग
फिर ये पल मिले न मिले।।
प्रस्तुत भाव में कवियत्री का सकारत्मक भाव दिल के किसी कोने में हिलोरे खा रहा है समय के तागाजे को देखते हुए कवियत्री अपने मन में अपने बीते हुए समय को याद करती है और अपने दिल में संजोए हुए अपने मां और पिता की मूरत को याद करती है, वो खूबसूरत निस्वार्थ पल जो मां बाप ने दिए वो अतुल्य है, वो उनका हाथ पकड़ कर पहला कदम चलवाना, और उनके द्वारा किया गया सर्वस्व निछावर अपना जीवन, यहां कवियत्री ने बहुत ही अच्छा मार्मिक चित्रण किया है मां और पिता के लिए
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