कतरा कतरा पिंघल रही हूं,
एक नए सांचे में ढल रही हूं,
कभी धूप घनी कभी छांव घनी,
खुद को ही पाठ ज़िन्दगी के पढ़ा रही हूं,
ख़्वाइशों को दे थपकी समझौते की,
उन्हें हौले हौले सुला रही हूं,
जब भी छेड़ा माज़ी को अपने,
लगा वर्तमान को सता रही हूं,
मुस्तकविल भी लगता है सहमा सहमा,
लगा अंतर्मन को जगा रही हूं,
कभी बनती हूँ नज़्म कभी गीत कोई,
जैसे अनहद नाद ज़िन्दगी को सुना रही हूं,
कतरा कतरा पिंघल रही हूं,
एक नए सांचे में ढल रही हूं,
न करती हूं अब कोई ईसरार
जैसे रूठे मन को मना रही हूं
मिश्री सी घुल गई औरों में,
गैरों को अपना बना रही हूं।।
कतरा कतरा पिंघल रही हूं।।
स्नेहप्रेमचन्द
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