अपने घर में भी है रोटी,
लौट आ,न कर देर अब,
वतन की माटी करे पुकार।
माँ, मातृभाषा और मातृभूमि
मिले तीनो को आदर सत्कार।।
थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है,
अधिक की नहीं हमें दरकार।
एक रोटी है गर खाने को,
कर लेते हैं हम टुकड़े चार।।
यही हमारी भारतीय सभय्ता,
यही रीति रिवाज और संस्कार।
मात्र धनोपार्जन की खातिर,
न दें मात पिता की आंखों में,
अब और अधिक लम्बा इ न्तज़ार।।
किस बात की आपाधापी है,
जीवनपथ न बनें अग्निपथ,
प्रेम ही हर रिश्ते का आधार।
कितने तन्हा हैं हम परदेस में,
वतन की सौंधी माटी की खुशबू से,
महरूम रह,
कैसे खुशी का कर सकते इज़हार?
अपने घर मे भी है रोटी,
करलो इस सत्य को स्वीकार।
सुख दुख जब होते हैं सांझे,
सुख दूने, गम आधे रह जाते हैं।
एक और एक होते हैं ग्यारह,
सबसे बढ़ कर है परिवार।।
संगठन में होती है शक्ति,
क्या हम इस सत्य से,
कर सकते हैं इनकार???
एक नियत समय के लिए,
ही तो निभाना है किरदार।
इसमें भी अपने जुदा रहें अपनों से,
क्या करते हो इस बात का इकरार??
आज़ा,लौट आ,वतन की माटी करे पुकार।।
स्नेहप्रेमचंद
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