सतयुग या कलयुग कोई विशेष समय परिधि नहीं अपितु मनः स्थिति के विविध अहसास हैं।
सात्विक सोच है तो सतयुग है,हम चाहें तो आज से अभी से इसी पल से सतयुग आ सकता है बशर्ते हमारी सोच बदले, क्योंकि सोच से ही कर्म और कर्म से ही परिणाम सुनिश्चित होते हैं,तामसिक प्रवर्तियों का निषेध ही तो सतयुग है।हम किसी की मुस्कान का कारण बनते हैं तो सतयुग है,किसी के कष्ट का कारण बनते हैं तो कलयुग है।मांसाहार,मदिरापान,
शोषण,अत्याचार,हिंसा,
संवेदनहीनता ये सब कलियुग के ही विविध रूप हैं,इनका वर्जन ही सतयुग है।मन मे सत्कर्मों का अनहद नाद जब बजने लगे,प्रेम की अनन्त स्वरलहरियां सर्वत्र गुंजन करने लगें,अहम से वयम का तराना बजने लगे,पूरी धरा ही एक परिवार की तरह लगने लगे,सुख दुख साँझे होने लगे,पर पीड़ा का बोध होने लगे,मन पर कोई बोझ न हो, जब व्यर्थ के आडम्बर,दिखावे की जगह सादगी,सरलता और सहजता लेले,समझो सतयुगआ गया।सन्तोष,क्षमा,त्याग,उदारता,विनम्रता,जागरूकता,सुशिक्षा,सुसंस्कार
संयम,चेतना,आत्ममंथन, आत्मबोध,ज्ञान,करुणा सब सतयुग की संतान हैं।जब लेने की बजाय देने में आनन्द आने लगे,समझो सतयुग की चौखट पर दस्तक दी जा चुकी है।।
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