इस जग को अधिक हानि बुरे लोगों से नहीं होती,बल्कि कुछ बुरा होने पर अच्छे लोगों की खामोशी के कारण होता है।द्रौपदी चीरहरण के समय समस्त सभासद,उसके पांचों पति पांडव,गुरु द्रोण,पितामह भीष्म,विदुर,महाराज धृतराष्ट्र सब मौन थे।अन्याय की चक्की चलती रही,क्रिया सही प्रतिक्रिया का इन्तज़ार करती रही।अन्याय अट्हास करता रहा, क्रूरता मंद मंद मुस्कुराती रही,बेबसी कराहती रही,न्याय ने भी गांधारी की तरह अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी थी, राजवंश की मर्यादा सिसकती रही,घुटती रही,रोती रही,बिलखती रही।आरजुएँ दम तोड़ती रही,अनीति खिल खिलाती रही,क्या पितामह भीष्म की प्रतिज्ञा किसी की बेबसी,रुसवाई,
अस्मत और मान सम्मान से भी बढ़ कर थी।कदापि नहीं।उस सिसकते इतिहास के पदचाप आज वर्तमान में भी सुनाई पड़ते हैं।
द्रौपदी को न्याय मयस्सर न हुआ,दुर्भाग्य जाग रहा था,सौभाग्य सो रहा था,गलत कर्म अपने चरम पर थे।जिल्लत गुर्रा रही थी,खौफ ए खुदा नदारद था,दुर्योधन की अहमकाना सोच अंकुरित,पल्लवित और पुष्पित हो रही थी।पूरी अंजुमन में कोई भी द्रौपदी के हक में नहीं आया।।
गलत को सही वक्त पर गलत कहना बहुत ज़रूरी है।साँप जाने के बाद लकीर पीटने से कोई फायदा नहीं।। जब कहीं भी कुछ भी गलत हो रहा हो,हमारी मौन स्वीकृति उस मोहर का काम करती है जिसके निशां वक़्त के साथ बेशक धूमिल तो हो जाए, पर मिट नही पाते हैं।।इतिहास,वर्तमान,भविष्य तीनों ही इस बात के गवाह हैं।सही तो है, का वर्षा जब कृषि सुखाने।।
स्नेहप्रेमचंद
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