यूँ ही तो नहीं सावन भादों गीले गीले से होते हैं।
मुझे तो लगता है ये लोगों की आँखों के आँसू होते हैं।।
दर्द बह निकलते हैं पथ पगडंडियों पर,
गुब्बार मन के हल्के होते हैं।
जाने कितने ही अनकहे अरमान सिसकने लगते हैं,
कितने ही समझौते दफन हृदय कोख में होते हैं।
कितने ही मीत नहीं मिल पाते जग में,
कितने ज़ज़्बात फ़ना होते हैं।
जाने कितनी ही अपनों की यादें जेहन की चौखट पर देती हैं दस्तक,
कितने ही अहसास,नम आँखों से रोते हैं।
जाने कितनी ही हसरतें दफन हो जाती हैं,
कितने ही शौक हमेशा के लिए ही लम्बी सी नींद में सोते हैं।
ये सावन भादों यूँ ही तो नहीं गीले गीले से होते हैं।।
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