नहीं सरहदें कोई सोच की,
अनन्त गगन सा इसका विस्तार।
जहाँ न पहुंचे रवि तहाँ पहुंचे कवि,
है इस बात का औचित्य और सार।।
शून्य सन्नाटे भी लगते हैं बोलने,
कायनात में विचरण करने लगते विचार।।
कतरे कतरे से बनता है सागर,
ज़र्रे ज़र्रे से बनती है कायनात।
लम्हे लम्हे से युग बनते हैं,
ज़िन्दगी खुदा की सुंदरतम सौगात।।
बस सोच को सोचने दो सीमाहीन सा,
भावों का, कर दो, सुंदर अल्फ़ाज़ों से शृंगार।।
स्नेहप्रेमचंद
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