गर धन दौलत गयी,तो कुछ न गया
गर स्वास्थ्य गया,तो कुछ तो गया
गर चरित्र गया,तो सब कुछ गया
बचपन से ही घोट घोट इन्ही संस्कारों की
घुट्टी पीते आये हैं।
फिर भी कामांध इंसा को ये फलसफे समझ नहीं आए हैं।
नित जाने कितनी ही द्रौपड़ियों के चीर हरण होते हैं।
भीष्म सा मौन धारण करे रहते हैं हम,क्यों ज़ज़्बात हमारे सोते हैं।।
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