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Festival of rakhi by sneh premchand

फिर से आई है यह राखी,
 फिर मिलने का मौसम आया है।
 कितना मधुर, कितना सुंदर
 होता भाई का साया है।।
फिर पड़ गए बागों में झूले,
 शाख शाख पर, पात पात लहराया है।
 फिर से आई है यह राखी,
 फिर मिलने का मौसम आया है।
 नए रिश्तो के नए भंवर में,
 बहना तो उलझी उलझी सी है,
 पर भाई ना भूले अपने फर्ज को,
 वह दिल से पहले जैसी ही है।।
 कोई भोर नहीं कोई सांझ नहीं,
जब जिक्र पीहर का
 जेहन में नहीं आया है।
 फिर से आई है यह राखी,
 फिर मिलने का मौसम आया है।।
 दौर ए मुलाकात होगी तो,
 दौर ए गुफ्तगू को भी मिलेगा अंज़ाम।
तरोताजा हो जाएंगे नाते,
जुदाई को फिर मिल जाएगा विराम।।
 खिजा नहीं फिजा का मौसम,
अब जर्रे जर्रे में छाया है।
 कितना मधुर कितना सुंदर
होता भाई का साया है।।
 फिर से आई है यह राखी,
 फिर मिलने का मौसम आया है।।
 कैसे बचपन में रूठते मनाते थे,
करते थे कैसे बात बात पर इसरार।
 सब भूल, क्यों बन जाते हैं औपचारिक,
 प्रेम ही हर रिश्ते का आधार।।
 कच्चे धागे के पक्के बंधन की रिवायत
 जाने कब से है जारी।
 प्रेम डोर ना टूटे कभी भी,
 समझने की आ गई है बारी।।
 दौर संग बदल जाते हैं नाते,
बदलते दौर ने बहुत कुछ 
हमें सिखाया है।
 भाई बहनों में ही ढूंढना पड़ता है 
अक्स मात पिता का,
 सदा रहता नहीं उन का साया है।।
 फिर से आई है यह राखी,
 फिर मिलने का मौसम आया है।।
 फिर आस चली विश्वास के द्वार पर,
 स्नेह ने द्वार प्रेम का खटखटाया है ।
जरा जरा महकने लगा प्रेमसुगंध से,
 सब प्रेम मय हो आया है।।
 कितना मधुर कितना सुंदर,
 होता भाई का साया है।।
फिर सीला सीला सा होने लगा
मन का कोई कोना,
फिर बचपन की चौखट पर
दिल दस्तक देने आता है।।
फिर याद आई वो मां की बातें
फिर दिल के उत्सव ने मिलन का
रास रचाया है।।
प्रेम हृदय में फिर फूटा कोई अंकुर
पुष्प महक से भर आया है।।
फिर आया मिलने का मौसम,
मन भीतर से  हर्षाया है।।
फिर अतीत के झोले से कुछ लम्हे
चुराने का पल आया है।।
बहने बाबुल के आंगन से वे लम्हे
चुराने हर साल पर्व पर आती हैं।
यादों के समन्दर में लगा गोते,
हो  तरोताजा फिर पी घर लौट जाती है।
उस आंगन की माटी की महक
जेहन में अपने बसाती हैं।
जहां ज़िन्दगी का परिचय हुआ था
अनुभूतियों से,खोजी निगाहों से
कुछ ढूंढती जाती हैं।।
इन निगाहों से बरखा प्रेम की,करने का वक़्त फिर आया है।
फिर से आईं है ये राखी,फिर मिलने का मौसम आया है।।
दौर बदल जाते हैं,मंज़र बदल जाते हैं
पर कुछ तो निशान कदमों के रह जाते हैं।।
इन बदलते दौरो में कुछ अक्स पुराने दौर के देखने बड़ी दूर से वे आ जाती हैं।।
नहीं बना कोई तराजू उनके प्रेम को मापने का,बिन कहे भी ढेर दुआएं दे जाती है।
इन दुआओं को आंचल में सहेजने का वक़्त फिर से आया है।
कितना मधुर,कितना सुंदर होता बहनों का साया है।।   
    स्नेह प्रेमचंद

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