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Thought on different aspects of life by sneh premchand

दुनिया भर में मशहूर हुए भी,
 तो क्या हुए?
अगर अपनों में ही अजनबी रह गए।
बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल की भी,
 तो क्या की?
गर अपनों की ही
 खामोशी ना पढ़ पाए।
बहुत बड़े डिजाइनर बने भी,
 तो क्या बने?
गर जिंदगी के लक्ष्य ही 
डिजाइन न कर पाए।
बड़े बड़े श्रृंगार कला केंद्र
 खोले भी तो क्या खोले,
गर मन के सौंदर्य को ही
 विकसित न कर पाए।।
बहुत सारी भाषाएं सीखी भी
 तो क्या सीखी,
गर दो मधुर बोल ही न बोल पाए।।
छप्पन भोग खाए भी तो क्या,
गर मां के हाथ की रोटी ही
 मयस्सर न हुई।।
ज्ञान के भंडार बने भी तो क्या,
गर लोगों के दिलों में
 करुणा की धारा ही 
नहीं बहा पाए।।
बहुत बड़े बड़े कला स्नातक बने,
भी तो क्या बने?
गर संगीत,साहित्य,कला की त्रिवेणी,
हृदय सागर में न बहा पाए।।
बड़े बड़े कथावाचक बने भी
 तो क्या बने?
गर मन की कहानी ही न समझ पाए।।
बहुत कुछ खरीद लिया भी,
 तो क्या खरीदा?
गर लोगों के दर्द ही
 उधार ना ले पाए।
बड़े बड़े सी ए बने भी ,
तो क्या बने?
गर ज़िन्दगी के पाप पुण्यों के
डेबिट क्रेडिट इस धरा 
पर ही न मिला पाए।।
बड़े बड़े पायलेट बने भी,
तो क्या बने?
गर ज़मीर पर से
 वक़्त की धूल ही 
न उड़ा पाए।।
बड़े बड़े लेखक बने भी,
तो क्या बने?
गर चेतना में सद विचारों का
स्पंदन ही न कर पाए।।
बड़े बड़े योद्धा बने भी,
 तो क्या बने?
गर मन के विकारों से 
युद्ध ही न जीत पाए।।
बड़े-बड़े अभिनेता बने भी,
 तो क्या बने?
गर अपना ही किरदार,
 सही से निभा नहीं पाए।
बड़ी बड़ी इमारतों के
 आर्किटेक्ट बने भी,
तो क्या बने?
जब छोटी छोटी झोंपड़ियों के
 नक्शे नहीं बना पाए।
बड़े बड़े संगीतकार बने भी,
तो क्या बने?
जब जन जन के मन के तार
न झंकृत कर पाए।।
अधिकाधिक धन उपार्जन
 किया भी,
तो क्या किया?
अगर मन की गरीबी को ही
 दूर ना कर पाए।
अनेक रिश्ते निभाए भी,
 तो क्या निभाए?
 गर कुछ खास रिश्तो में
 प्रेमदीप ही ना जला पाए।
वेद पुराण पढ़े भी
 तो क्या पढ़े?
गर किसी की वेदना ही
 न पढ़ पाए।
महान गणितज्ञ बने भी,
तो क्या बने?
गर मन की उदासी को घटाना,
और मन की खुशी को दूना,
करना नहीं आया।।
देश देशांतर घूमे भी,
तो क्या घूमे?
 अगर मन के गलियारों में
 विचरण ही न कर पाए।
 सारे तीरथ धाम करें भी,
 तो क्या करे?
 गर जीवन की सांझ में,
मात पिता को चंद लम्हे 
ही ना दे पाए।।
बड़े-बड़े डॉक्टर बने भी,
तो क्या बने?
 गर शक्ल देख कर
हरारत ही पहचान ना पाए।
बड़े-बड़े शिक्षक बने भी,
तो क्या बने?
 गर शिक्षा के मस्तक पर
 संस्कार का टीका ही ना लगा पाए।।
स्नेह प्रेमचंद

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