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लोरी thought by sneh premchand

सातों सुर पड़ जाते है फ़ीके, 
जब कोई माँ लोरी गाती हैं।
माँ के आँचल में है वो पूर्णता,
जहां ममता डेरा जमाती है।।

मा बना दे जो भी रोटी,
वो प्रसाद बन जाती है।
मां दिखा से राह जो भी,
वहीं मंज़िल बन जाती है।।
मां सिखा से पाठ जो भी,
वहीं शिक्षा बन जाती है।।
मां के आचार,विचार और व्यवहार।
यही तो बनते हैं, 
प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारे संस्कार।।
मित्र भी मां,मीत भी मां,
शिक्षक भी मां,मार्गदर्शक भी मां।
सहजता भी मां,सुकून भी मां,
राह भी मां,राहगीर भी मां,
दरख़्त भी मां, छांव भी मां,
शहर भी मां, गांव भी मां,
माँ की हर चितवन होती है चारु,
मा खुशियाँ ही खुशियाँ 
सहेज कर लाती है।।
मां कह दे जो भी बतिया
वो अमृतवाणी बन जाती है।।
सातों सुर पड़ जाते हैं फीके
जब कोई मां लोरी गाती है।।
       स्नेह प्रेमचंद

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