वह भी तो थक जाती है।
बेशक निज मन की,
कभी खुलकर कह नहीं पाती है।
जिम्मेदारी का ओढ़ दुशाला,
कर्तव्य की ठंड भगाती है।
विज्ञान के तर्क सरीखे, इस जहां में,
कविता सी बहे जाती है।।
अपनी इच्छाओं को समझौतों
का अक्सर परिधान पहनाती है।
जाने किस माटी से बनाया है
उसे खुदा ने,
पूरी कायनात भी समझ नहीं पाती है ।।
अपेक्षाओं की चादर पर अक्सर,
कर्म के सिरहाने बन जाती है।।
परंपरा की पटडी पर बन रेल
निर्वाहन की,
सरपट दौडे चली जाती है।।
वह भी तो थक जाती है।।
बन ज़िन्दगी की पावन गंगा
गंगोत्री से गंगासागर के सफर तक,
खुद में जाने क्या क्या
समेटे जाती है।।
वह भी तो थक जाती है।।
उम्मीदों के सागर पर,
शान्ति का बांध बनाती है।।
अपने माँ बाबुल की लाडली,
हर ज़िद मनवाने वाली,
फिर मोम सी पिंघल जाती है।।
बात बात पर रूठने वाली,
बाद में बिन गल्ती के भी,
औरों को बार बार मनाती है।
प्राथमिकताओं की फेरहिस्त में,
खुद को पीछे किए जाती है।
न गिला,न शिकवा,न शिकायत कोई
खामोशी और मुस्कान को,
अपनी सहेली बनाती है।।
रूठना छोड़ देती है सदा के लिए,
सहज होने की कोशिश में,
अक्सर असहज सी हो जाती है।।
वो रुकती नहीं,वो घबराती नहीं,
वो नारी नारायणी बन जाती है।।
वह भी तो थक जाती है।।
ऊपर से बेशक मुस्कुराती हो,
पर भीतर से तिनका तिनका सी
बिखर जाती है ।।
वह भी तो थक जाती है ।
कभी शौहर का, कभी बच्चों का
सबका ही ख्याल ताउम्र रखे जाती है ।
उसकी शक्ल देख हरारत पहचानने वाली मां भी तो
एक दिन चली जाती है ।
नहीं दिखती फिर उसकी थकान
और किसी को,
वह चाबी वाले खिलौने सी चलती जाती है।
काम करे तो ही अच्छी और संस्कारी
कहलाती है।।
वह भी तो थक जाती है ।
क्यों बात ये छोटी सी बड़े से जेहन को समझ नहीं आती है ।
वह भी तो थक जाती है।।
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