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Poem on rakhabandhan by sneh premchand

पूछन लागी जब मेरी सखियाँ,
क्या राखी का तू लायी है?????
कैसे कहूँ मै जो लायी हूँ, 
तुझको सखी री नाही दिखेगा।
भाई प्रेम का पुष्प है जो, 
वो बहना के ही, दिल मे खिलेगा।।

कैसे बताऊँ, भाभी की बतियाँ, अपनेपन की लंबी सी रतियाँ।।

कासे कहूँ मैं प्रेम बच्चों का,
माँ का अक्स नज़र उनमे आया।

बाबुल की सहजता उस आंगन में,
आज वो अंकुर वृक्ष बन आया।।

कैसे बताऊँ, वो पल बचपन के,
लायी हूँ संजो कर ,हिवड़े में अपने।

होते हैं पूरे वहाँ, देखे थे जो भी सपने।।

माँ बाबुल का तन तो नही है।

लेकिन उनका मन तो वहीं है।।

निहारते होंगे जब ऊपर से,

दिल से दुआएँ देते होंगे,
उस आँगन की मिट्टी की महक,
आज भी ख्वाबों में आया करती है,
सौंधी सौंधी सी कितनी प्यारी सी थी,
अंतःकरण को पूर्णता भाव से भरती है,
आज भी याद आता है माहौल वो,
जब बचपन ने ली थी अंगड़ाई।
कितने मज़े से खेला करते थे सब,
खो खो,पिटठू, छुपम छुपाई।।
माँ के खाने की महक आज भी,
यादों में है तरोताज़ा,
वो बैंगन का भरता,
 वो सरसों का साग
वो बाजरे की खिचड़ी,
वो परांठा दो प्याजा।।
भूली बिसरी सी यादों को,
फिर तरोताज़ा कर लायी हूँ।।

देख के अपना चमन अनोखा,

वो कितने खुश होते होंगे,

इन सब यादों को बांध पिटारे मे, मैं पीहर से ससुराल में लायी हूँ।
अतीत के झोले से कुछ पल पुराने
जेहन में ताज़ा कर आई हूं।।
मां बाबुल के कमरे से उनकी
महक से महक कर आई हूं।।
लेकर तो गई थी धागा कच्चा
पर बन्धन पक्का लेे आई हूं।।

कहो सखी तुम्हे कैसे दिखाऊं,
संग मेरे क्या क्या सौगातें आयी है।।

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