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Poem on emotions कोलाहल by sneh premchand

थाली तो बड़े जोर जोर से,
 हम बेटा होने पर बजाते हैं।
पर जब जीवन की सांझ ढले, 
अपनी तनहाइयों के कोलाहल, 
हौले हौले बेटियों को ही सुनाते हैं।।
बेटों से तो मात पिता मन की भी,
 नहीं सही से कह पाते हैं।।

शायद विरोधाभास का इससे बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता।। 

अधिकार तो चाहिए, सबसे पहले,
 पर जिम्मेदारियां लेने से 
क्यों कतराते हैं।
 
विडंबना का शायद इससे बेहतर
 कोई उदाहरण हो ही नहीं सकता।।

हमें क्या मिला,हमें क्या नहीं मिला,
 इसी उधेड़बुन को जेहन में,
 अंकित किए जाते हैं।
हमने क्या दिया, हम क्या दे सकते थे,इस सोच को भी जेहन में 
लाने से भी कतराते हैं।।
थाली तो बड़े जोर-जोर से,
बेटा होने पर बजाते हैं।
 पर जब जीवन की सांझ ढले,
 तन्हाइयों के कोलाहल,
बेटियों के कान में ही,
हौले हौले सुनाते हैं।।
जिंदगी तो एक गूंज है,
 जो देते हैं,उसे ही किसी
 न किसी रूप में हम वापस पाते हैं।।
छोटी सी बात,पर अर्थ बड़ा,
 क्यों इस सत्य को समझ नहीं पाते हैं।
 बहुत संभाल कर रखी जाती है,
 वसीयत मात-पिता की,
पर अक्सर दवाइयों के पर्चे,
कूड़ेदान की शोभा बढ़ाते हैं।।
 थाली तो हम बड़े जोर-जोर से,
 बेटा होने पर बजाते हैं।
पर अपनी तनहाईयों के कोलाहल
हौले हौले बेटियों को ही सुनाते हैं।।

ये सीधा सा गणित हम क्यों समझ नहीं पाते हैं।।
 प्रेम के मूलधन को चक्रवृद्धि ब्याज सहित,
जाने कितनी ही बार हमें लौटाते हैं।
 बनते हैं जब हम खुद मात-पिता,
 मसले तभी समझ में सारे आते हैं ।।
थाली तो बेटा होने पर हम,
 बड़े जोर जोर से बजाते हैं।
 शक्ल देख कर हरारत पहचानने वाले,
मात पिता फिर क्यों हमारे 2 बोलों के लिए भी तरस जाते हैं ।।
एक सामान सा समझकर,
 दे देते हैं उन्हें हम एक कोना सा ,
दिल के दरवाजे पर संवेदनहीनता,
 का एक ताला सा लगाते हैं।
 उस चाबी को भी कहीं रखकर, 
हम सदा के लिए भूल जाते हैं ।।
थाली तो बड़े जोर-जोर से,
 बेटा होने पर बजाते हैं।
 हमें सोते हुए देखकर भी जाने
 कितनी ही बार प्रेम से,
 हमारे बालों में हाथ फिराते हैं।।
 उड़ेल देते हैं स्नेह सिंधु सारे का सारा,
कितना अजब किरदार मात-पिता
 सदा ही निभाते हैं।।
 दुआओं में भी रहते हैं, बच्चे सदा उनकी,
गुस्सा आने पर भी खामोश ही
 रह जाते हैं।।
 जीवन के अग्निपथ पर,
वे शीतल सी धारा बन जाते हैं।।
 पकड़ उंगली बड़ी मजबूती से,
 जिंदगी की राह पर चलना
 हमें सिखाते हैं।।
कर्तव्य कर्म के इस जीवन में,
 बड़े प्रेम से सारे कर्तव्य निभाते हैं।
 फिर जीवन की सांझ में,
 उनके कांपते हाथ और डगमगाते कदमों को सहारा देने से,
 हम क्यों कतराते हैं।।
जब वे बन सकते है ए टी एम और आधार हमारा,फिर हम उनका सहारा
क्यों नहीं बन पाते हैं।।
हमारे सपनों को पूरा करने के लिए
वे अपने सपनों की बलि चढाते हैं।।
मातृ और पितृ से तो कभी
 उऋण हो ही नहीं सकते,
हम सीधा सा गणित जिंदगी का क्यों समझ नहीं पाते हैं।।
 दो बोल प्रेम के सुनने को,
कान उनके क्यों बरसो तरस जाते हैं ।।मात-पिता की दुनिया में,
 तो बच्चे ही होते हैं उनका पूरा संसार ।बच्चों के संसार में,
 वे अक्सर कहीं खो से क्यों जाते हैं ।।थाली तो हम बड़े जोर-जर से,
 बेटा होने पर बजाते हैं।
 पर जब जीवन की सांझ ढले,
तन्हाइयों के कोलाहल को,
 हौले हौले बेटियों के ही कान में
ही सुनाते हैं।।
              स्नेह प्रेमचंद

Comments

  1. संवेदनहीन रिश्तों की सच्चाई यही है

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