आज भी सिसक रही है पांचाली
मौत भी कम है घर लेना हो प्रतिशोध।
जब भी रोती है पांचाली,
लागे कलंकित गांधारी की गोद।।
भरी सभा मे केश खींच कर
दुशाशन पांचाली को केशों से घसीट कर लाया।
आज भी इतिहास उस नासूर के घाव को
नही भर पाया,नही भर पाया,नही भर पाया।।
अब और कोई द्रौपदी न यूँ सिसके
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