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मां की परिभाषा ( Thought by Sneh premchand)

मां तो वो किताब है, जिसका हर हर्फ कर्म की स्याही से लिखा हुआ है।

मां तो वो चमन है, जिसका बूटा बूटा, पत्ता पत्ता,कली कली, हर सुमन वात्सल्य की महक से लबरेज़ है।।

मां तो वो रंगरेज है, जो तन,मन,रूह को भी अपने रंग से ताउम्र के लिए रंग देती है।।

शक्ल देख कर हरारत पहचानने वाली मां के अस्तित्व में हमारा व्यक्तित्व आटे में नमक की भांति मिल जाता है।।

जीवन की हर उधडन की, मां हर मोड़ पर, करती रहती है, स्नेह धागे से तुरपाई।।

ज़िन्दगी की दीवारों को उतरन को ममता के सीमेंट से सही करती रहती है मां।।

मां तो वो छत्रछाया है, जिसका जिक्र भी पूरे अस्तित्व को ममता से आच्छादित कर देता है।।

मां तो वो दीप है, जो बाती बन कर खुद जल कर अपने से जुड़े जाने कितने ही नातों को रोशन कर देती है।।

मां तो ज़िन्दगी के कीचड़ में खिला वो कमल है, जो जिजीविषा और सहजता को जन्म देता है।।

मां वो तरुवर है, जिसकी शीतल छाया तले मन,तन के थके पथिक को सुकून ए रूह मिलता है।।

मां झरना नहीं,नदिया नहीं,सरोवर नहीं, कूप नहीं,मां तो ऐसा शांत,धीर गंभीर सागर है,जिसकी ममता की न तो गहराई नापी जा सकती है,न लंबाई,न चौड़ाई। वो तो अनन्त,अथाह, सीमाहीन है।अनुराग जल से लबरेज़ है।।

मां तो स्नेह का वो तंदूर है,जिसमे मात्र अपनत्व की रोटियां ही सिकती हैं।।

मां आदित्य का तेज़ है तो इंदु की ज्योत्स्ना है।।

मां पुष्प का पराग है तो चूल्हे की आग है।।

मां सहजता,संस्कार,शिक्षा,पर्व,उत्सव,
उल्लास का वो अनहद नाद है जो मात्र अनुराग धुन ही निकालता है।।

मां कर्म की गीता का माधव है।।
मां रामायण की मधुर चौपाई है।।
मां जाड़े की गुनगुनी धूप है तो आम की अमराई है।।
प्रकृति की हरियाली है मां तो शादी की शहनाई है।।
मां तो वो मंगल गीत है जो हर घर में बड़ी मधुरता से गाया जाता है।।

सांझ ढले घर आते ही नजरें सिर्फ और सिर्फ मां को ही खोजा करती हैं।।
मां तो वो बैंक है जहां हम अपनी हर अनमोल धरोहर जमा करा सकते हैं।
ब्याज के रूप में चित चैन है मां,
हर समस्या का समाधान है मां।।

एक दिन मां जग से बेशक चली जाती हो,पर जेहन से ताउम्र नहीं जाती।वो यहीं कहीं हमारे आसपास ही रहती है।
हमारे व्यवहार,हमारी सोच,हमारी कार्य शैली में मां का अक्स, नजर आ ही जाता है।।

अपने जन्मदिन पर हमें साथ मे हमें जन्म देने वाली मां का जन्म भी बनाना चाहिए। मातृ ऋण से हम ताउम्र ऊ ऋण नहीं हो सकते। मां को बस हमारा थोड़ा सा समय और मधुर बोल ही तो चाहिए,और कुछ नहीं,कुछ भी तो नहीं।।

मां भाव है, शब्द नहीं।
मां चाव है, अवसाद नहीं।
मां सहजता है, बेचैनी नहीं।
मां ऊर्जा है, अकर्मण्यता नहीं।
मां चेतना है, बेहोशी नहीं।
मां आस्था है, संशय नहीं।
मां प्रीत है, घृणा नहीं।
मां गति है उदासीनता नहीं।
मां सृजन है, विनाशक नहीं।

अगर अल्फाओं से होती सच्ची दोस्ती,
तो मां का सही से कर पाती बयान।
हमारे व्यक्तित्व को अपने अस्तित्व से
रंगने वाली रंगरेज मां से नहीं हो सकता कोई भी महान।।
मुझे भाव पसंद हैं,मां भाव ही तो है,
शायद इस लिए ही मां का जिक्र जेहन में
आते ही लेखनी चलने लगती है अविलंब अविराम।।
          स्नेह प्रेमचंद

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