वो कैसे सब कुछ कर लेती थी??
थोड़े से उपलब्ध संसाधनो में हमे सब कुछ दे देती थी!!!
पर्व,उत्सव,या फिर कोई भी उल्लास'
बना देती थी वो कितना खास!!!
ज़िन्दगी के भाल पर जिजीविषा का कैसे तिलक लगा देती थी????
कभी नहीं रुकती थी,कभी नहीं थकती थी,कभी कोई विराम नहीं लेती थी।।।
वो कैसे सब कुछ कर लेती थी।।।
कर्मठता का पर्याय थी,जीवन मे सबसे सच्ची राय थी।।
कितने पापड़ बेल कर भी सहजता से मुस्काती थी।।
वो कैसे सब कुछ कर जाती थी !!!
वक्त में से अपने लिए तूं कभी वक्त निकाल नहीं पाती थी।
ये तूं नहीं,तेरे हाथ पर लिपटे सूखे आटे की उतरन बताती थी।।
वो कैसे सब कुछ कर जाती थी।।।
वो सिर पर मण बोझ लादना,
वो गेहूं की अनेकों बाल्टी तोलना,
वो कितनी ही भैंसों को करना काम
वो भंड्रोल मांजनी,वो कपड़े धोना,
वो इंटों के फर्श को लाल लाल चमकाना।
वो दीवाली पर भेंसों के गले की पट्टियां बनाना।।
वो हम संग कितने ही मेहमानों का भोजन पकाना।।
वो कैसे सब कर लेती थी।।
गर पी एच डी करनी पड़े उसके बारे में, हर कोई चक्कर मे पड़ जायेगा।
डाटा कुछ औऱ कहेगा,परिणाम कुछ और ही आएगा।!!
समझ से परे है,मरुधर में हरियाली थी"
सच मे हमसब के चेहरे की लाली थी!
उफ्फ तक भी न करती थी,
हर समस्या का समाधान बन जाती थी!
यही सोचती हूँ मै अक्सर,वो कैसे स्नेह भी इतना, वो भी सबको, कैसे देती थी
वो सच मे कैसे सब कर लेती थी???
कर्म के गुल्लक में कैसे इतने सिक्के
प्रयासों के भर देती थी??
सहजता के चूल्हे मे,कैसे जिजीविषा के अंगारे सुलगाती थी???
स्नेह के मंडप में कैसे प्रेम के अनुष्ठान पल भर में कर लेती थी????
वो कैसे सब कुछ कर देती थी???
मेहनत के तंदूर में सफलता की रोटी थी मां।।
कर्म की गीता का माधव थी मां।
रामायण की मधुर चौपाई सी थी।।
उर्मिला सा धीरज थी मां।।
इस जग से सात आश्चर्य हैं मां की ममता,मां का धीरज,मां के प्रयास,
मां की खामोशी,मां का सहयोग,मां का निस्वार्थ होना और मां का चलते जाना।।
इन सातों से लबरेज़ थी मां,कभी भी कुछ नहीं कहती थी।।
वो कैसे सब कुछ कर लेती थी?????
बहुत सोचा सोच ने,तब सोच को समझ ये बात आती है।
हौंसले बुलंद हों फिर कोई भी समस्या बाधा नहीं बन पाती है।।
वो सब कुछ अपनी इच्छा शक्ति से कर लेती थी।
मन के हारे हार है,मन के जीते जीत,
सत्य सिद्ध कर देती थी।।
स्नेह प्रेमचंद
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