सांझहोते ही माँ याद आ जाती है
पश्चिम में डूबते सूरज की लालिमा
जैसे दया सी हम पर खाती है
गोधूलि की इस बेला में
उड़ती धूल जैसे मन के भाव दिखाती है
डोर से उतारते सूखे कपड़ो को
मानो कोई ललना यूँ ही भर ले जाती है
पंछी लौटते हैं अपने अपने घोंसलों में
उनके इंतज़ार में छोटे पंछियों की वाणी
हृदय छलनी कर जाती है
आधे भावों बिकती सब्ज़ी
कैसे पड़ी सुस्ताती हे
Comments
Post a Comment