जब भी यादों को कुरेदा मैंने,
अतीत के झोले से कुछ स्मृतियां निकाल कर लाई
मां तूं ही तूं बस,तूं ही तूं, नजर आई।
उठती है दिल में जैसे कोई सुनामी,
फिर कुछ भी तो नहीं देता सुनाई।।
जब भी यादों को........
ज़िन्दगी का परिचय जब हुआ
अनुभूतियों से,तब तूं साथ थी।
हर संज्ञा,सर्वनाम,विशेषण का
हो रहा था जब बोध मुझे,
तब भी तूं साथ थी।।
हो रहा था जब अक्षर ज्ञान मुझे,
तब भी तूं साथ थी।।
बचपन जब ले रहा था करवट,
ज़िन्दगी एक नए रूप की चौखट
खटखटा रही थी,
तब भी तूं साथ थी।।
फिर एक दिन तूने मुझे रुखसत कर
दिया मां,पर सुकून था दिल में,
तूं है तो यहीं कहीं,
जब जी चाहेगा,मुलाकात हो ही जाएगी।।
मैं जब ज़िन्दगी के नए भंवर में
उलझी उलझी सी थी,
तब भी कहीं न कहीं तूं साथ थी।।
फिर एक दिन ऐसा आया जलजला,
तूं छोड़ चली गई मां,
चल रही है फिर भी ज़िन्दगी,
पर तूं नहीं,तो बहुत कुछ नहीं।।
पर मुझे लगता है तूं कहीं नहीं गई,
मेरे एहसासों में सदा थी,सदा है,सदा रहेगी,मेरी रूह का लिहाफ है तूं मां,
तेरे अस्तित्व में मेरा व्यक्तित्व समा सा जाता है मां।
क्या लिखूं तेरे बारे में,अधिक तो कुछ समझ नहीं आता मां।।
कोई तुझ सा पूर्सां न ए हाल तो कभी मिल नहीं सकता मां,
हां अब मुझे,मुझ मे ही,नजर आती है तूं,बिटिया मे भी तेरा ही अक्स नजर आता है मुझे,जब भी तेरे स्पर्श की चाह होती है तेरे हाथ के बने स्वेटर को पहन लेती हूं,तेरे आंचल को ओढ़ लेती हूं,
मेरे एहसास फिर जी उठते हैं मां।।
जलकणों के भार को जब सहन नहीं
कर पाते मलहार,
उन्हें कभी हौले,कभी तेज़ी से धरा पर
देते हैं उतार।
तेरी याद जब घणी गहरा जाती है मां,
सजल नयन भी ढलक जाते हैं बारम्बार।।
बारिश के बाद ज्यों और भी हरी हो जाती है हरियाली,सब उजला उजला हो जाता है।
तेरी याद में बरस जाते हैं नयन मेरे,
हट जाते हैं धुंध कुहासे, मन अजीब सा सुकून मेरा पाता है।।
तूं नहीं तो किसी कोने में धूलि कनों से
सना बैग जैसे मुझे चिढाता है।।
तूं मुझ से दूर कहीं नहीं जा सकती,ना माना था,न मानूंगी कभी।।
लगता है जैसे छुआ है तुझे अभी अभी।।
स्नेह प्रेमचंद
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