दिल की किताब के हर पृष्ठ पर नज़र
सिर्फ मां ही मां आती है।
क्या करूं????????????????????
बस गई है जेहन में ऐसी,जैसे एक सांस आती है,एक सांस जाती है।।
एक मां ही होती है जग में ऐसी,
जो निजमुख का निवाला भी बच्चे को खिला,खुद भूखी सो जाती है।।
जग के इस मेले में,
जो बहुत कुछ हम नहीं जानते,
सबसे अवगत करवाती है।।
पुष्प में खुशबू,चेतना में सपंदन,
दिल में धड़कन,दीप में ज्योति
झट से बन जाती है।।
सागर से भी गहरी मां,
जाने क्या क्या अपने भीतर समाती है।
कितनी भी हो चाहे दिक्कत,
मां हर हाल में मुस्कुराती है।।
अपनी औलाद के भले के लिए,
पूरे जमाने से लड़ जाती है।।
अधिक तो नहीं आता कहना,
मुझे तो मां ईश्वर के समकक्ष नजर आती है।।
स्नेह प्रेमचंद
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