वो बचपन कितना प्यारा था !
जहाँ लड़ते ,झगड़ते,
फिर एक हो जाते,
वो सच में कितना न्यारा था !
जब कुछ भी उलझन होती थी,
तब माँ की होती गोदी थी।
पिता का सर पर साया था,
न लगता कोई पराया था।।
औपचारिकता की बड़ी बड़ी सी,
अब चिन ली सबने दीवारें हैं।
पार भी देखना चाहें अगर हम,
बेगानी बेगानी सी मीनारें हैं।।
तब तेरा मेरा न होता था,
सब का सब कुछ होता था।
जहान, हमारा सारे का सारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था!
माँ इंतज़ार करती थी,
वो सब से बड़ा सहारा था।
बाबुल के सहज से अंगना में,
चिड़िया का बसेरा बड़ा दुलारा था।।
वो बचपन कितना प्यारा था!
नही बोलता था जब कोई अपना,
चित्त में हलचल हो जाती थी।
खामोशी करने लग जाती रही कोलाहल,
भीड़ में भी तन्हाई तरनुम बजाती थी।
किसी न किसी छोटे से बहाने से,
मिलन की आवाज़ आ जाती थी।
अहम बड़े छोटे होते थे,
सहजता लंबी पींग बढ़ाती थी।
सबने मिलजुल कर बचपन अपना निखारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
अपनत्व के तरकश से सब
प्रेम के तीर चलाते थे।
रूठ जाता था गर कोई,
झट से उसे मनाते थे।।
नही मानता गर कोई,
उसे प्रलोभन से ललचाते थे।
लेकिन जीवन की मुख्य धारा में,
कैसे न कैसे उसे ले आते थे।।
दुर्भाव के तमस को बड़ी सहजता से
हर लेता, प्रेम भरा उजियारा था।
वो बचपन कितनी प्यारा था!
अभाव का प्रभाव होता था ज़रूर,
जब मिल जाता कुछ, होता बड़ा गरूर
अब सब मिल कर भी वो खुशी नही मिलती,
अब हर कली पुष्प बन कर नही खिलती।।
छोटे छोटे से सपनो का होता सुंदर गलियारा था।
वो बचपन कितना प्यारा था!
अहम से वयम का बजा देते थे
हम शंखनाद।
छोटी छोटी बातों को नही
रखते थे याद।।
माँ की चूल्हे की रोटी का स्वाद ही कितना न्यारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
वो बरसते थे जब भी बादल,
वो कितने मजे से नहाते थे,
वो कागज की नाव को कितने जतन
से बहते पानी में चलाते थे।।
छपाक छपाक कूदते थे पानी में,
कितना हुल्लड़ मचाते थे।।
कोई किसी को कुछ भी कह दे,
शिकन न माथे पर लाते थे।।
सखी सहेली मिलती थी रोज,
न बिछोडा कोई गवारा था।
वो बचपन सच में कितना प्यारा था।।
पापा का होना ही बहुत कुछ होता था
एक पूरा युग ही उनमें समाया था।
सब लगता था सरल,सहज,सुंदर
जैसे किसी सागर का शांत किनारा था।।
वो बचपन कितना प्यारा था।।
उन्मादी सा बचपन था,
नयनो में सुंदर सपने थे,
पापा का साया सिर पर था तो
सारे खिलौने अपने थे।
हर दिन होली होता था,
हर रात दीवाली होती थी।
चंचलता दिन भर थक कर,
यामिनी में चैन की निंदिया सोती थी।
हर उत्सव खास बन जाता था
जब भीड़ अपनो की होती थी,
अनुरागिनी उषा का दर्द आफताब
के सीने पर चैन से सोता था।।
जब जी चाहे नन्हा चित्त हंस लेता,
जब जी चाहे वो रोता था।।
लोग क्या सोचेंगे,क्या कहेंगे
न इन बातों से कोई लेना देना
होता था।
न धन दौलत की हाय हाय थी,
न कुछ अधिक पाना, न ही कुछ मन खोता था,समय कब पंख लग कर उड़ गया
हमने न ही कुछ भी संवारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
सावन आने पर सब मिल कर
लेते थे हिंडोले।
कहीं उड़ती पतंग,
कहीं मस्ती करते मलंग,
मनचाहे मनमर्ज़ी के शर्बत में शरारत की चीनी घोले।।
जब ऊर्जा और ऊष्मा मिल कर लेती थी अंगड़ाई,
जब साईकल से होती थी हमने दौड़ लगाई,
जब चिंता हमारी, मात पिता को होती थी,
तब कोई बेबसी घुटन के आंसू न रोती थी,
वो भी क्या दिन थे,जब हर मित्र बना हरकारा था।
वो बचपन कितना प्यारा था।।
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