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मैं प्रेम कपाट रखूंगी खोल कर (विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा)

मैं प्रेम कपाट रखूंगी खोल कर,
तुम बिन दस्तक के आ जाना।
दिमाग नहीं जब कहे दिल तुम्हारा,
तभी मेरे शहर का टिकट कटाना।।

यूं मत आना कि आना चाहिए था,
बस जब दिल में उठे जज़्बात,
तब बिन बैग ही आ जाना।।
जैसे आती है आंगन में कोई 
गौरैया बिन बतलाए,
ऐसे ही किसी रोज
 अचानक आ जाना।
जैसे सिंधु हृदय में उठती है लहर,
ऐसे ही तुम आ जाना।।

आ जाता है जैसे कोई बच्चा अपनी गेंद लेने, ऐसे ही अचानक आ जाना।।
आती है जैसे बारिश के बाद माटी की
सौंधी सी महक,
ऐसे ही कभी तुम आ जाना।

आता है नजर जैसे अचानक ही बदली के पीछे छिपा चंद्रमा,
ऐसे ही तुम भी आ जाना।।

आ जाती है कहीं से कटी पतंग कोई छत पर,
ऐसे ही तुम आ जाना।।
आते हैं भोर संग जैसे दिनकर,
यूं ही तुम भी आ जाना।।


सावन भादों संग ज्यों आती है बरखा,
यूं ही तुम भी आ जाना।।
बसंत में ज्यों आती है आमों पर अमराई,
यूं ही तुम भी आ जाना।।

अल्फाजों में छिपे अर्थ से,
नयनों में छिपे किसी राज से,
उर में उमड़े घुमड़े किसी भाव से,
सागर में बहती किसी नाव से,
हाला में छिपे किसी सरुर से,
पावन नाते की गरिमा और गरूर से,
हौले  हौले बिन दस्तक के आ जाना।
मैं प्रेम कपाट रखूंगी खोल के,
आस का दीया सदा जलाना।।

मां पापा का अक्स नजर आता है
अब तो एक दूजे में,
सबसे सुंदर प्रेम तराना।।
  
   तेरा आना ही सच में होगा 
मेरे लिए अनमोल उपहार।
और अधिक नहीं आता कहना
प्रेम ही हर रिश्ते का आधार।।

सौ बात की एक बात है,
दिल के दिल से जुड़े हैं तार।।
एक ही वृक्ष के हैं हम फल,फूल और
पत्तियां,
सबसे मिल कर ही तो है परिवार।।
       स्नेह प्रेमचंद

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