लिखने को तो कितना ही लिख लो,
मां के बारे में,
हर शब्द पड़ जाएगा छोटा,
हर भाव हो जाएगा नम।।
कितना भी कर लो बखान मां का,
निश्चित ही लगेगा वो कम।।
खुद हो कर क्वार्नटीन एक कमरे में,
अब तो इस अहसास की अलख जलाओ।
मां को भी कितना अखरता होगा एकाकीपन,
समय रहते ही चेत जाओ।।
मात्र *कैसी हो मां* कह कर अपनी जिम्मेदारियों से नयन मत चुराओ।।
फिर जिद्द करो पहले सी उससे,
मां तेरे हाथ की रोटी खानी है।
वो झट से उठ जाएगी देखना,
मां सच में औलाद की दीवानी है।।
हमें हमारे गुण और दोष दोनों
संग जो अपनाती है।
कोई और नहीं वो प्यारे बंधु,
सिर्फ और सिर्फ मां कहलाती है।।
एक अर्ज और गुजारिश है उनसे मेरी,
जिनकी माएं वृद्धाश्रम में रहती हैं।
इस मदर्स डे पर जा कर ले आओ उनको,रहती है उदास वहां पर वो,
बेशक लबों से कुछ नहीं कहती है।।
वो पल भर भी ओझल नहीं
होने देती हमे अपने आप से,
हम कैसे वृद्ध आश्रम में उसे छोड़ चैन से रह पाते हैं???
मुझे तो जीवन के ये दोहरे आयाम समझ नहीं आते हैं।।
माना मसरूफियत बहुत हैं जिंदगी में हमारी,
पर अपनी प्राथमिकताओं की फेरहिस्त में हम मां को कहां बिठाते हैं।
यह सब कुछ निर्भर करता है हमारी सोच पर,क्यों सो जाती है ज़िम्मेदारी,
और अधिकार जागृत हो जाते हैं।।
वसीयत बांटने के लिए तो बेटे झट से
दौड़े आते हैं।
पर उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ कर,
अपने अलग ही घरौंदे बसाते हैं।।
शायद अपने अंतर्मन के गलियारों में
विचरण करने से,वे निश्चित ही आंख चुराते हैं।।
मां, कब,क्या,कैसे,कितना करती है,
इस पर तो पूरा ग्रंथ लिखना भी पड़ सकता है कम।
लिखने को तो कितना ही लिख लो मां के बारे में, हर शब्द पड़ जाएगा छोटा,
हर भाव हो जाएगा नम।।
दिल की कलम से
स्नेह प्रेमचंद
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