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Showing posts from June, 2021

माझी कैसा है

सफर

प्रकृति

शब्द या चित्र

जमाने भर की सर्द गर्म

सर्द गर्म से

लगती है तुझे चोट वहां

ताने बाने

कब बड़े होते हैं हम

बीज

कासे कहूं ((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कोई नहीं सुनता फरियाद

कासे कहूं

बाज़ औकात

एक ही माला

Zra sochiye......Bhai Behan ek hi mala me piroye hue moti hein.her moti ydi alag h to kewal ek moti hi h,per jab or motiyon ke sang h,to wo mala h.uska swrup sunder ho jata h,taakat Bach jati h,per kai baar jab mala tut jati h,to moti bikher jaate h,baad me mala dobara bnane ki kosish bhi kro,to pehle jaisi nhi banti

क्या फर्क पड़ता है

दौलत आये दौलत जाए, क्या फर्क पड़ता है। शोहरत मिले न मिले, क्या फर्क पड़ता है। यहाँ रहो, वहाँ रहो, क्या फर्क पड़ता है। कम हो अधिक हो, क्या फर्क पड़ता है। कोई आये कोई जाए, क्या फर्क पड़ता है। पर माँ बाप जाते हैं, तो फर्क पड़ता है। भेदभाव होता है, तो फर्क पड़ता है। अपने पराये हो जाएं तो फर्क पड़ता है।।

सास नहीं,सांस हो तुम((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

सास नहीं,सांस हो तुम, दिल नहीं धड़कन हो तुम,  सारी की सारी। चलो मां, अब घर चलते हैं, रिटायर होने की आ गई है बारी।। आप तो मिसाल हैं हम सबके लिए, जिंदगी के तूफानों से भी जो ना हारी।। रुकी नहीं,थकी नहीं, बढ़ती ही रही, जैसे शोला बन जाता है चिंगारी।। कंठ नहीं,आवाज हो तुम, जिंदगी का मधुर सा साज हो तुम, आप के होने से ही, लगती है सुंदर कायनात ये सारी। चलो मां,अब घर चलते हैं,रिटायर होने की आ गई है बारी।। जिंदगी हर मोड़ पर एक नई जंग रही, अनुभव लिखते रहे जाने कितने ही किस्से और कहानी। अधिक तो नहीं आता कहना, पर आप हो हर कहानी की महारानी।। मां का साया हो गर सिर पर, बीत जाती है हर रात तूफानी।। संघर्षों से आप बिखरी नहीं,आप निखरी, आपने अकेले ही हम सब की जिंदगी संवारी। मात पिता दोनों का किरदार निभाया आपने,कभी भी हिम्मत कहीं न हारी।। चलो मां अब घर चलते हैं,घर जाने की आ गई है बारी।। हौले हौले ये दिन एक दिन आ ही जाता है,तन मन दोनो से ही करनी पड़ती है तैयारी।। एक पड़ाव बीत गया जिंदगी का, दूसरे की आ गई है बारी।। कभी बहू नहीं,सदा बेटी समझा आपने,अपने कर्तव्य कर्मों को पूरा किया आपने,जैसे मंदिर में...

बिन जुबान भी

गर्म सर्द से

जिंदगी खूबसूरत है

मां बन कर

मां ही मां

जब भी हुई होगी जीत धर्म की

ईश्वर निश्चित ही

कुछ ऐसा कर जाओ

कभी कभी

घर आंगन दहलीज है बेटी

कुछ कर दो दर गुजर

जगत के तुम हो पालनहार

स्नेह सुमन

अभाव के प्रभाव में

ज़रूरी है जीना

कोई जब

कई बार

मौन प्रार्थना

उठ लेखनी

मां के लिए

मां के लिए तो बच्चे ही होते हैं उसका पूरा संसार। पर बच्चों के संसार में कहीं खो सी जाती है मां,ये मुझे नहीं होता स्वीकार।।  एक मां ही तो होती है,जो हर रूप में हमे करती है प्यार।।

जब तूं छोटा बच्चा था

बहनों से अधिक

मात पिता के बाद बहनों से अधिक कोई नहीं कर सकत है प्यार। मां का अक्स नजर आता है बहनों में, उनसे जीवन होता गुलजार।।

तीन की तिकड़ी

तीन की तिकड़ी थी ये कितनी प्यारी काला काला चश्मा बता रहा है कहानी ये सारी।।

वो दिन पुराने

आते हैं याद बहुत,मुझे तो वे दिन पुराने। लगता है जैसे जाग गए हों गुजरे जमाने।।

वो लम्हें कितने प्यारे थे

यादों को कैद करना है तो चित्र ही हैं इसका आधार। जब खुल कर हंसना है बच्चा,मां को आ जाता है प्यार।।

कभी कभी

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है गर अतीत के झोले से कुछ लम्हे चुराने का मौका मिलता तो मैं वे लम्हे चुराती जब बच्चे छोटे थे,और मेरे पास थे।।

दस्तावेज

अतीत की यादों के सुनहरे दस्तावेज होते हैं ये चित्र पुराने। बरसों बाद जब देखा इन्हें,लगा ये तो गुजर गए जमाने।।

कब बीत गया वक्त

पलक को रखना पलकों पर

कृष्ण है पुष्प

कृष्ण हैं पुष्प तो राधा सुगंध है।कृष्ण हैं दिल तो राधा है धड़कन।कृष्ण हैं पवन तो राधा गति है।अभिव्यक्ति है कान्हा तो राधा है अहसास।प्रेम है कान्हा तो राधा अनुराग है।कृष्ण है पपीहा तो राधा है कोयल।कृष्ण है अधर तो राधा है बांसुरी,नयन हैं कान्हा तो चितवन है राधा,स्वाद है गोविंद तो भोजन है राधा।गगन है राधा तो सूरज है कान्हा,सुर है मोहन तो सरगम है राधा,सागर है मोहन तो लहर है राधा,नदिया है कान्हा तो बहाव है राधा,मस्तक है कान्हा तो बिंदिया है राधा,मांग है कान्हा तो सिंदूर है राधा,राधा कृष्ण है,कृष्ण ही राधा है।दो नही एक ही है,यही कारण है आज भी राधा का नाम कान्हा से पहले लिया जाता है।राधे कृष्ण,राधे कृष्ण।

क्यों कुछ भी नजर नहीं आता था???

क्यों हमे कुछ भी नजर नहीं आता था???? वो अकेली जाने क्या क्या करती थी, हम सब उसे लेते थे सहजता से, क्यों मन विचलित नहीं हो जाता था??? उपलब्ध सीमित संसाधनों में भी वो हर इच्छा पूरी करती थी, लाती न थी शिकन कभी माथे पर, सबका पेट बखूबी भरती थी।। हम फरमाइशो का बड़ा सा पिटारा कैसे झट से खोला करते थे। खाना खा कर बर्तन भी खाट तले ही  धरते थे।। हमे क्या चाहिए यह ज़रूरी था नजरों में हमारी, हमे अपना अपना ही सारा नजर आता था। तूं बनी रही एक मशीन सी काम की, हमे मनचाहा सब कुछ मिल जाता था।। क्यों नहीं पिंघलता था दिल हमारा, क्यों हमे वो नजर नहीं आता था। क्यों नजर नहीं आता था उसका वो बर्तनों का ढेर मांजना, क्यों नजर नहीं आता था वो सिर पर  चारा रख कर लाना, वो गेहूं की दस दस बोरियां तोलना, वो घणी गर्मी में गर्म तंदूर पर रोटियां  सेंकना, वो कपड़ों को धो धो बुगला सा बनाना, वो ईंटों के फर्श को बोरी से रगड़ रगड़ लाल लाल लिश्काना, वो कितने ही लोगों को खुशी खुशी खाना खिलाना, वो घने सवेरे उठ कर काम में लग जाना, वो सावन भादों में खाट खड़ी कर बोरी बिछा कर चूल्हे पर रोटी  पकाना, सबकी ब...

कितना मधुर,कितना प्यारा

पूछता है जब कोई

अतीत

अतीत के दस्तावेज