अपना परिचय देते हुए केशव के प्रकट हुए कुछ यूँ उदगार।
मैं ही सुख हूँ,मैें ही दुःख हूँ,
हूँ मै ही साकार और निराकार।।
पाण्डवोंकी जीत मैं हूँ,
हूं मैं ही तो कौरवों की हार।
पितामह के बाणो की शय्या मैं हूँ,
हूँ मैं ही सृजन और संहार।।
द्रौपदी का लुटता आँचल हूँ मैं,
हूँ मैं ही गांधारी की ममता की हार।।
अर्जुन का धनुष हूँ मैं,
हूँ मैं ही एकलव्य के अन्याय का सार।
मैं दुर्योधन की घायल जांघ हूँ,
हूँ मैं दुशासन की फटी छाती की पुकार।
धरा भी मैं हूँ,गगन भी मैं हूँ,
हूँ मैं ही अधर्म पर धर्म की जीत का हार।।
मैं ही धरा, मैं ही अंबर, मैं ही हूं कायनात ये सारी।
मैं आदि हूं, मैं हूं अनंता, मैं ही शोला,
मैं ही चिंगारी।।
स्नेह प्रेमचंद
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