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मां ममता का सागर((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

मां पर जब भी लिखने लगती है
 ये लेखनी,
चलती रहती है सतत,अविलंब
 और अविराम।।

संभव है सागर की नापना गहराई।
पर मां के प्रेम की थाह तो,
 आज तलक न किसी ने पाई।।

औलाद कैसी भी हो, 
मां तो प्रेम करती है निष्काम।
कभी नहीं रुकती,कभी नहीं थकती,कैसे करती है कर्म अविराम।।

हर भाव के लिए शायद
 बन ही नहीं पाए अल्फाज।
वरना आज बता देती, 
मां की ममता का, सब को राज।।

अल्फाजों की भी एक सीमा है,बेशक भावों की कोई सरहद,हो, न हो।
फिर इन भावों को कैसे पहुंचाएं एक दूजे तक,हम जो कहें,हो सकता है दूजे के पास उसे समझने के अहसास हों, न हों।।

हम भाव लिखते हैं, वे शब्द पढ़ते हैं,
उन भावों को देखने का चश्मा उनके पास हो, न हो।।

अधिक तो नहीं आता कहना, मां कुदरत का सबसे अनमोल वरदान।
मां न होती तो सच में इतना सुंदर
होता ही नहीं ये विहंगम जहान।।

एक परिवर्तन तो निश्चित ही,
अब सोच में आया है।
बहनों में नजर आता अब
 मां का साया है।।

मात पिता के बाद बहन के नाते को,
मैने तो सबसे अनमोल सा पाया है।
न गिला, न शिकवा, न शिकायत कोई,
धन्य हूं मैं,एक नहीं तीन बहनों को पाया है।।

जब प्रेम से रहते हैं बच्चे फर्श पर,
अर्श में मां हर्षित हो जाती है।
मुझे तो मेरी ये लेखनी, हर पल यही बताती है।।
      स्नेह प्रेमचंद

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