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गुरु पूर्णिमा((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

मां से बेहतर,मां से प्यारा,
मुझे तो कोई भी गुरु नजर नहीं आता।
मां दीया नहीं,आफताब है जीवन का,
मां से अधिक,कोई भी तो नहीं भाता।।

चेतन में भी मां है,अचेतन में भी मां है,
मां कुदरत की सर्वोत्तम रचना।
यही मन्नत मांगती हूं ईश्वर से,
मां तूं ही हर जन्म में मेरी मां बनना।।

जीवन का परिचय अनुभूतियों से कराने वाली मां से बेहतर कौन गुरू होगा,
मेरे छोटे से दिमाग को ये बड़ा सा मसला समझ नहीं आता।
जुगुनू नहीं भास्कर है मां जीवन का,
मां से बेहतर कोई भी गुरु नजर नहीं आता।।

हर संज्ञा,सर्वनाम,विशेषण का बोध कराने वाली मां मुझे तो ईश्वर के समकक्ष नजर आती है।
हर क्यों,कैसे,कब,कितने का ततक्षण
उत्तर बन जाती है।।
शक्ल देख कर हरारत समझने वाली मां बेशक एक दिन इस जग से चली जाती है।
पर जेहन में वो प्यारी सी मां,
ताउम्र के लिए बस जाती है।।
हमारे अचार,व्यवहार,कार्य शैली में मुझे तो वो रोज नजर आती है।।
मां से प्यारा अक्स मुझे तो पूरी जिंदगी के  आइने में नजर नहीं आता।
कहीं खोज लो,पूरे जग में मां बच्चे का सबसे सुंदर नाता।।
मां तारा नहीं,दिनकर है जीवन का,
मां का जिक्र भी जेहन में एक तरंग सी भर जाता।
मां से बेहतर,मां से प्यारा,मुझे तो कोई गुरु नजर नहीं आता।।

ध्यान रहे एक बात जरा,
ये सावन भादों यूं हीं तो नहीं गीले गीले होते हैं।
ये नम नयनों के वो अश्रु हैं,
जिनसे नयन बच्चे
मां जाने के बाद भिगोते हैं।।
मां सबसे गहरे अहसास की पराकाष्ठा है,आज नहीं तो कल,
सबकी समझ में आ जाता।
मुझे तो मां से बेहतर गुरु 
कोई भी नजर नहीं आता।।

जिंदगी की किताब के हर किर्तास पर नजर मां ही मां आती है।
क्या करूं?? बस गई है जेहन में ऐसी,
जैसे एक सांस आती है,एक सांस जाती है।।
हमें हम से बेहतर जानती है वो,हमारे भूगोल हमारे मनोविज्ञान को उससे बेहतर जानेगा कौन??
हमारी जिंदगी के गणित,हमारी सोच से सब प्लस माइनस को जानती हुई भी अक्सर धारण कर लेती है मौन।।
हमारी बायोलॉजी की जनक,आजीवन हमसे केमिस्ट्री बिठाती,
सच में होती है हमारी भाग्य विधाता।
जुगुनू नहीं, मां तो सूरज है जीवन का,
मां से अधिक कोई भी तो नहीं भाता।।

शिक्षा के भाल पर संस्कारों का टीका मां ही लगाती है।
जिंदगी के हर मोड़ पर,एक प्यारा सा गुरु बन जाती है।।
पर्व,उत्सव,उल्लास है मां।
रीति,रिवाज,शिक्षा,संस्कार है मां।।
मां क्या है,कैसी है लिखने लगती है जब ये लेखनी,
फिर विराम लगाना इसे नहीं आता।।
सतत,अविलंब,अविराम चलती है ये, मां इसका पसंदीदा विषय बन जाता।।
मां से बेहतर,मां से प्यारा,मुझे तो कोई भी गुरु नजर नहीं आता।।
अतिशयोक्ति नहीं,सत्य है निर्विवाद ये,
एक ही बात है मां कहो या कहो विधाता।।
           स्नेह सावित्री प्रेमचंद

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