आता है कई बार ये समझ देर से,पहले इंसा खुद ही विचलित होता है।
सुलझती हैं जब गुत्थियां जीवन की,तब ये अनुभव होता है।
खुद के लिए जिये तो क्या जीये,किसी के दर्द उधारे लेने से जीवन सार्थक होता है।
गर कोई बंधु सोता है भूखा, नहीं फिर हमारा भी छपन भोगों पर अधिकार।
एक है रोटी तो बाँट के खा लें,सबल निर्बल का जीवन सकता है सुधार।।
ठिठुरता है गर कोई जाडे में,नरम बिछोनो पर हक हमारा नही होता है।
छत नही गर किसी के सर पर,बंगलों में रहने का इंसा झूठे ही गौरव ढोता है।
अहम से वयं,स्व से सर्वे,मैं से हमारा सदा ही बेहतर होता है।।।
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