परिंदे
पर निकलते ही परिंदे,
आसमा के हो गए।
भूल गए पालनहारों को,
एक नई दुनिया में खो गए।।
माना ज़िन्दगी के हैं रंग अनोखे,
अपनी तरफ लुभाते हैं।
पर अपनी प्राथमिकताओं को
क्यों हम आसानी से भुलाते हैं?
ज़िन्दगी की भुलभुलैया में,
भूल अपनों को ही,हम सब सो गए।
कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं हमारी उनके लिए भी,
ये क्यों और कैसे हम ऐसे हो गए??
धरा पर जन्म दिया था जिस माँ ने हमको,
संवेदनहीन से उसके लिए हम हो गए।
खो गए अपनी ही छोटी सी परिधि में
पत्ते बस और बस बेलों के हो गए।।
भूल गए उस महान वृक्ष को हम,
जिसका कभी हम छोटा सा हिस्सा थे।
हो गयी सीमित और छोटी सी दुनिया हमारी
माँ बाप तो अब भूला हुआ सा किस्सा थे।
भूल से भी नही भूलना चाहिए,हमे उनके अहसासों को,
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