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बिन प्रेम सब सून ((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

बिन प्रेम सब सूना है जग में,
प्रेम ही है हर रिश्ते का सार।
जिसने पढ़ ली प्रेम की पाती, समझो अपना जीवन लिया संवार।।

प्रेम संवेदना के पिता है,और संवेदना का ममता से है माता का नाता,
संवेदनशील होना है बहुत ज़रूरी,इंसान क्यों सब ये है भूलता जाता?????

नियत समय के लिए ही तो हम सब को किरदार अपना अपना निभाना है,क्यों न निभाएं इसको सही तरह से,इस जग को छोड़ कर जाना है,ज़रा सोचिए।।प्रेम सबसे मधुर अहसास है,जहां प्रेम है वहां ईर्ष्या,लोभ,अहंकार सब नष्ट हो जाते हैं,प्रेम की कढ़ाई में सौहार्द का साग ही पकता है।इस साग पर सदैव करुणा का धनिया ही बुरका या जाता है।इसकी सौंधी सौंधी महक से पूरी कायनात महकने लगती है,नजर नहीं,नजरिया ही बदल जाता है।।
प्रेम परमार्थ की राह चलता है,
 मोह स्वार्थ की।

*प्रेम में वो ताकत है,
सबको अपना बनाने की।
वरना क्या औकात थी सुदामा की,
माधव को पोहे खिलाने की?????

*स्नेह में वो ताकत है
 अराध्य को अपना बनाने की।
वरना क्या जरूरत थी राम को,
भिलनो के झूठे बेर खाने की?????

*अनुराग में वो ताकत है,
सबको अपना बनाने की।
वरना क्या जरूरत थी कान्हा को
विदुर घर भाजी खाने की???????

  प्रेम दृष्टि नहीं दृष्टिकोण बदल देता है,प्रेम लेना नहीं,देना जानता है।।
प्रेम काल, जाति,धर्म,देश कोई सीमा नहीं जनता।प्रेम तो जैसे सुमन में महक हो,चिड़िया में चहक हो,ऐसा होता है।प्रेम आत्म मंथन के बाद आत्मसुधार की राह पर अकेला ही चल पड़ता है।प्रेम तो वो बुहारी है जो मालिन मनों से सब धुंध कुहासे हटा देती है। समस्त विषाद,अवसाद,ईर्ष्या,लोभ का शमन कर देता है।सच में जो प्रेम करता है उसे और किसी बैंक बैलेंस की ज़रूरत नहीं होती,जैसे रवि को जुगनू की दरकार नहीं।।प्रेम पूरी ही आबोहवा को बदलने में सक्षम है।।प्रेम कभी किसी शर्त का मोहताज नहीं होता।प्रेम सदा अहम से वयम की ओर चलाता है।प्रेम गली से गुजरने वाला प्राणी तन से नहीं मन से सुंदर हो जाता है।।प्रेम ऐसा रंगरेज है जो सबको अपने रंग में रंग लेता है।प्रेम ऐसा दीपोत्सव है जो सबके मन में उजियारे लाने में समर्थ है।तमस से प्रकाश की राह पर चल देता है प्रेम।प्रेम के शब्दकोश असंभव जैसा कोई शब्द नहीं।।प्रेम तो वो संजीवनी बूटी है जो निष्प्राण को भी जीवनदान दे देती है।प्रेम वो आक्सीजन है जो दिल और दिमाग दोनो के लिए ज़रूरी है।प्रेम को समझना हो तो मां से तुलना करना सही है,जैसे मां का प्रेम सदा निर्मल होता है,गंगोत्री से गंगासागर तक एक सा ही रहता है,निश्चल होता है,ऐसा प्रेम जीवन की दुर्गम राहों को सरल बना देता है।।प्रेम स्वयं एक मूल्य है,मूल्यांकन की वस्तु नहीं।परीक्षा भाव न होकर,प्रेम समर्पण भाव है,प्रेम का चरम रूप श्रद्धा है।

*होता है प्रेम सदा प्राणी से,
क्या रखा है घर की दर ओ दीवारों में?????
कितना प्यारा,कितना सुंदर विषय है ये,
क्यों न चले लेखनी अविलंब इसके बारे में?????
       स्नेह प्रेम चंद

Comments

  1. बहुत ही घटिया सोच और शब्दो वाली कविता जैसे , वरना क्या औकात थी सुदामा की, भिलनो के झूठे बेर खाने की,

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