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फर्क पड़ता है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*फर्क पड़ता है* बहुत फर्क पड़ता है जब बहुत ही अपने अचानक ही बहुत ही बेगाने हो जाते हैं। फर्क पड़ता है जब माता-पिता भी अपने बच्चों में भेदभाव कर देते हैं। फर्क पड़ता है जब हम मधुर वाणी का प्रयोग ना कर के कटाक्ष भरी बातों का प्रयोग करते हैं।फर्क पड़ता है जब जीवन की सांझ में बच्चे बड़ों को के लड़खड़ाते कदमों का सहारा नहीं बनते।फर्क पड़ता है जब कोई हमारा हक छीन लेता है। फर्क पड़ता है जब बेटा बेटी में भेदभाव किया जाता है।फर्क पड़ता है जब बच्चे बड़ों की बातें सुनते ही नहीं। फर्क पड़ता है जब शिक्षा के भाल पर संस्कार का टीका नहीं लगता। फर्क पड़ता है जब हमारा पैशन प्रोफैशन नहीं बन पाता।फर्क पड़ता है जब कोई दिल की बात नहीं समझता।फर्क पड़ता है जब कोई बहुत ही खास बहुत ही अपना, जिंदगी के रंगमंच से अचानक ही सदा के लिए विदा हो जाता है। फर्क पड़ता है जब किसी को तो सूखी रोटी भी मयस्सर नहीं होती और कोई कोई 56 भोग खाता है। फर्क पड़ता है जब विषमता की खाई अधिक गहरा जाती है।फर्क पड़ता है जब बाल शोषण किया जाता है। फर्क पड़ता है जब शिक्षा की अलख हर गली कूचे गलियारे में नहीं जलती। फर्क पड़ता है जब रोटी कपड़ा और मकान की आधारभूत आवश्यकताएं पूरी ही नहीं होती।फर्क पड़ता है जब शौक जरूरतों पर हावी हो जाते हैं। फर्क पड़ता है जब हाला के प्याले घर की नारी घर के पुरुषों के संग छलकाती हैं। सुधार की हर संभावित संभावना को खुद ही खत्म कर देती हैं। फर्क पड़ता है जब बहुत ही खास लोग अचानक ही अपने रिश्तो को सीमित कर वार्तालाप को भी बंद कर देते हैं।फर्क पड़ता है जब हम राम सा मर्यादित जीवन न अपना कर,रावण से व्यभिचार को महत्व देते हैं। फर्क पड़ता है मानो चाहे ना मानो।।
      स्नेह प्रेमचंद

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