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हक और अधिकार

माँ केवल माँ नही होती,माँ होती है हक़ और अधिकार
सहजता ,उल्लास,पर्व है माँ,माँ जीवन को देती है संवार
जिजीविषा है माँ,उमंग है माँ,एक माँ ही तो करती है इंतज़ार
हर रिश्ते से भारी पड़ता है माँ का रिश्ता,चाहे करो या न करो स्वीकार
पतंग है जीवन तो डोर है माँ,सबसे उजली भोर है माँ
माँ है तो जाने का बैग भी झट से हो जाता है तैयार
अब चिढ़ाता है किसी कोने में पड़ा हुआ,नही होंगे कभी माँ के दीदार
मन में तो सदा बसी रहोगी माँ,सच थी कितनी तुम समझदार
भांति भांति के मोतियों से बनाया माँ तूने कितना अद्भुत 
कितना प्यारा, जीने का सहारा प्रेमहार

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वही मित्र है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

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