आँखे कितना रोती हैं, जब उंगली अपनी जलती है।।
सोचो उस तड़पन की हद ,जब जिस्म पे आरी चलती है॥
बेबसता तुम पशु की देखो ,बचने के आसार नही।।
जीते जी तन काटा जाए,उस पीडा का पार नही॥
अंग लाश के खा जाए, क्या फ़िर भी वो इंसान है?
पेट तुम्हारा मुर्दाघर है ,या कोई कब्रिस्तान है?
खाने से पहले बिरयानी,चीख जीव की सुन लेते।।
करुणा के वश होकर तुम भी शाकाहार को चुन लेते॥
दया की आँखे खोल देख लो, पशु के करुण क्रंदन को।।
इंसानों का जिस्म बना है ,शाकाहारी भोजन को॥
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