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A poem on Basant Panchmi आया बसंत देखो झूम के ऐसे(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।
आया बसंत देखो झूम के ऐसे,
किया प्रकृति ने हो जैसे सोलह श्रृंगार।।

*मदनोत्सव कहें या विद्याजयंती*
है ये शुभ मुहूर्त और पावन त्यौहार।
प्रकृति का उत्सव सा लागे अति मनोहर,
कहे कालिदास का *ऋतु संहार*

धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।
माघ शुक्ल पंचमी से हो आरंभ,
हर लेता मन के समस्त विकार।।
नव जीवन,नवयोवन,और मस्ती मादकता से सब को होता है प्यार।
प्रेम सरसता से आप्लावित,
कितना प्यारा,कितना सुंदर त्योहार।।

सरसों के फूलों का समंदर,
*गुलमोहर के लाल पीले से फूल*
रंगों का ऐसा मोहक आकर्षक नजारा
सब गम इंसा जाता है भूल।।
प्रकृति अपने सुंदरतम रूप में,
कलियां बनी फूलों का हार।
मधुरम मधुरम मंडराते भंवरों का गुंजन, छेड़ दिए हों जैसे किसी वीणा के तार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

उत्साह,जोश,उमंग,उल्लास
लक्ष्य पाने की होती आस।
ऐसा मस्ती भरा आलौकिक पर्व ये,
महिमा जाने सारा संसार।।
ऐसे चुंबकीय माहौल में इंसा
भूले अपना सारा अहंकार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

संवेदनहीन समाज हेतु,
बसंतपंचमी है,मानो संजीवनी समान।
बढ़ें हमारे ज्ञान और कर्म,
हो,सबको इसके प्रतीकों का भान।।
उदासीनता हर लेता है हर चित से,
बसंतपंच्मी का पावन त्यौहार।
जिजीविषा,ऊर्जा,ऊष्मा,उल्लास के सर्वत्र होते हैं दीदार।।


धार्मिक दृष्टि से भी बसंत पंचमी का
महत्व है सबसे न्यारा।
हुआ प्रादुर्भव मां शारदा का,
जाने सत्य ये जग सारा।।
कामदेव रति के स्मरण का दिन भी,
इसे ही तो माना जाता है।
पहन पीताम्बर,खा पीली चीजें
संतुष्टि सुख इंसा पाता है।।
कर्मों से पल्लवित होता है जीवन,
यही जीवन का सच्चा सार।
साहित्य,संगीत, कला की त्रिवेणी
हो सबके जीवन का आधार।।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

नई कोंपले,नए नए किसलय,
नव सृजन का हुआ सर्वत्र संचार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनेरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

*बसत है एक भाव दशा,सुगंध और जीवन दर्शन*
महान आलौकिक पर्व है ऐसा,
आलौकित हो जाते तन और मन।।
मन होता है जब आह्लादित,
तन भी हो जाता है खुशगवार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

*पुष्प आच्छादित* धरा लागे ज्यों,
रंग बिरंगी मोहक चादर,
जहां तक जाए नजर इंसा की
प्रकृति के लिए उमड़े आदर।।
लम्हा लम्हा हो वृद्धि इस आदर में,
इसी रंग उमंग से लबरेज यह त्योहार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

*पंछी का कलरव,भौरों का गुंजन*
माटी की सौंधी सौंधी सी महक,
कौन सा कण है प्रकृति का ऐसा
जो खुशी से आज ना रहा हो चहक??
ये महक चहक मानव जीवन में यूं ही सदा रहे बरकरार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।


ज्योतिष की दृष्टि से चाहे देखो
दिन बहुत है ये मंगलकारी,
विवाह,विद्या,या वेद शिक्षा
हर रूप में है ये हितकारी।।
मंगलकारी भी,हितकारी भी,
ऐसी तरंगों का करता संचार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

*ज्ञान विज्ञान कला विद्या की देवी
सरस्वती*का सब करते आहवान।
पत्थर को भी पारस बना दे,
ऐसी होती इस पर्व की शान।।
शान में हो सतत वृद्धि,
चिंता रहित हो मन,ना पनपे कोई भी विकार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

कर्म प्रतीक विष्णु की पूजा भी
आज ही के दिन होती है,
गीता भी कर्मों के बीजों को
हर इंसा चित में बोती है।।
चिंतन हो,चित चिंता न हो,
ने पनपे मन में कोई भी विकार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

प्रकृति तो है मां हमारी,
इसे न लूटे,
रहे बसंत की बारह मास बहार।
प्रकृति से बड़ा तो कोई शिक्षक नहीं,
इस की सीख से जीवन ले सब संवार।।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

ज्यों त्रिलोकी के राजा हैं शिव,
यूं ऋतुओं का,*बसंत*है राजा
जर्रा जर्रा धरा का बोले जैसे,
गया शीत,बसंत अब तूं आजा।।
प्रकृति ने दिया सदा संदेसा,
पूरा विश्व है एक परिवार।
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया,
हुआ नील गगन का और विस्तार।।

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