और क्यों जागृत हो जाते हैं अधिकार???
जीवन की भोर में उंगली पकड़ कर चलना सिखाने वाले,
मात पिता, जीवन की सांझ में, हैं, हमारे प्रेम के हकदार।।
क्यों मूंद लेते हैं हम नयन,आंखों के होते हुए भी नेत्रहीन से हो जाते हैं।
ना देखते,ना सुनते,ना सोचते हैं उनके बारे में,
धृत राष्ट्र सा खुद को खुद ही बनाते हैं।।
अपनी जिंदगी का रिमोट सुपुर्द कर देते हैं दूजे के हाथों में,
हमारी सोच पर भी हमारा कैसे नहीं रह पाता अख्तियार।।
क्यों सो जाती है जिम्मेदारी और जागृत हो जाते हैं अधिकार???
माना समय संग परिंदे पर निकलते ही उड़ जाते हैं।
पर लौट कर तो आना है सांझ ढले उसी घोंसले में,
जानते हुए भी अंजान से बने जाते हैं।
अपने कर्तव्य कर्मों में हम सच में आंखें चुराते हैं।
चुग जाती है फिर खेत चिड़िया,
पाच्छे फिर पछताते हैं।।
समय रहते सही कर्मों को क्यों नहीं अपनाते हैं????
जब सो जाती है जिम्मेदारी,फिर तो लोरी दे कर सुला दो अपने सारे अधिकार।
इतिहास खुद को दोहराता है बंधु,
नहीं आता समझ हमे बारंबार।।
स्नेह प्रेमचंद
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